ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ख़ार से भी उलझती रही ज़िंदगी
फूल बन के महकती रही ज़िंदगी
वक़्त की क़ैद में साँस की है लड़ी
लम्हा-लम्हा तड़पती रही ज़िन्दगी
इश्क़ में वस्ल कम था, जुदाई बहुत
करवटों में सिसकती रही ज़िंदगी
कौन समझायेगा ज़ीस्त का फ़लसफ़ा
आज ख़ुद ही समझती रही ज़िंदगी
मैं उठाती रही नाज़ इसके सभी
इसलिए तो बहकती रही ज़िंदगी
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ग़ज़ल-
है तुझी से बहार का मौसम
मेरे दिल के क़रार का मौसम
एक मुद्दत से मुन्तिज़र है दिल
जाने कब आये प्यार का मौसम
मेरी ख़ुशियों के बादशाह बता
उम्र भर है ख़ुमार का मौसम
रात बेचैन-सी कोई रुत है
और दिन इंतज़ार का मौसम
‘आरती’ तुमसे ज़िंदगी रोशन
तुमसे ही ऐतबार का मौसम
– डॉ. आरती कुमारी
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