ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
पत्थर न देखिये कोई ख़ंजर न देखिये
नफ़रत भरी हो जिनमें वो मंज़र न देखिये
दुश्वारियाँ मिलेंगी हवादिस की शक्ल में
क़दमों में कोई ख़ार या पत्थर न देखिए
आँखों में नींद आये न आये तो क्या हुआ
ख़्वाबों के वास्ते कोई बिस्तर न देखिए
निकले हैं गर सफ़र में सऊबत का खौफ़ क्या
अब रास्ते में कौन है रहबर न देखिए
ये देखिए कि प्यास है होंठों पे किस क़दर
आँखों के दरमियान समुंदर न देखिए
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ग़ज़ल-
जा रहा चुपके से सूरज का बदन पानी में
क्या बुझा पायेगा दिनभर की जलन पानी में
शाम आँचल को पसारे हुए बैठी है अभी
वो उतारेगा मुसाफ़त की थकन पानी में
रंग मेहनत मेरी लाएगी ज़रा देर सही
डूब न जाए कहीं सच्ची लगन पानी में
जाने क्यों रूठ गई प्यास लबों से मेरे
जब से महसूस हुई दिल की चुभन पानी में
रात भर ‘आरती’ बाँटेगी उजाला सबको
भोर होते ही बिखेरेगी किरन पानी में
– डॉ. आरती कुमारी