ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
आँधियों में भी पल गयी हूँ मैं
देख मौसम को ढल गयी हूँ मैं
जो बनाई हदें थीं मेरे लिए
तोड़कर अब निकल गयी हूँ मैं
लोग सब ही ख़फ़ा-ख़फ़ा से हैं
क्या कोई सच उगल गयी हूँ मैं
रोशनी बाँटने को निकली थी
यूँ ही सूरज-सी जल गयी हूँ मैं
माँ बनी मैं बहू कभी बेटी
कितने रिश्तों में ढल गयी हूँ मैं
आँख में क्यूँ खटकती हूँ उनकी
जिनसे आगे निकल गयी हूँ मैं
नफ़रतें तंज़ तीखे तेवर सब
जाने क्या-क्या निगल गयी हूँ मैं
आईना करता है शिकायत अब
इस क़दर क्यूँ बदल गयी हूँ मैं
आज मासूमियत मिली मुझको
देख ‘दिव्या’ मचल गयी हूँ मैं
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ग़ज़ल-
सिसकती है डाली हवा रो रही है
कली अधखिली फिर से रौंदी गयी है
फ़िज़ा में उदासी घुली इस तरह अब
ज़ुबां सिल गयी, आँख में भी नमी है
मेरी ख़ैरख़्वाही का दावा था करता
तबाही मेरी देख लब पर हँसी है
हुए तनहा हम ज़िन्दगी के सफ़र में
लगे अपनी सूरत ही अब अजनबी है
यकीं है मुझे जिसकी रहमत पे हरदम
उसे चार-सू ही नज़र ढूँढती है
उसे रात के क्या अँधेरे डराएँ
जो ताउम्र ख़ुद तीरगी में पली है
नसीबा करो बंद अब आज़माना
ख़बर भी है क्या मेरी जां पर बनी है
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ग़ज़ल-
डगर क़ामयाबी की हम चल रहे हैं
निगाहों में अपनों के ही खल रहे हैं
उजाले दिया बाँटता वो क्या जाने
अँधेरे उसी के तले पल रहे हैं
दिखे बदला-बदला हुआ सारा मंज़र
यहाँ अपने अपनों को ही छल रहे हैं
बड़ी बेरुखी से चले साथ में जो
बिछड़ हम गये, हाथ वो मल रहे हैं
लगी को बुझाने की थी साजिशें पर
वफ़ा के ये शोले अभी जल रहे हैं
क़दम लड़खड़ाए बहुत राह में थे
मगर हौंसले अपने संबल रहे हैं
घने पेड़ आँगन के थे कल तलक जो
वही बोनसाई में अब ढल रहे हैं
उन्हें पूछता कौन है आज ‘दिव्या’
बने सुर्खियों में भी जो कल रहे हैं
– दिव्या कोचर