ग़ज़ल
ग़ज़ल-
किसी उजड़े हुए घर को बसाना
कहाँ मुमकिन है फिर से दिल लगाना
यकीनन आग बुझ जाती है इक दिन
मुसलसल गर पड़े ख्वाहिश दबाना
वो उस पल आसमां को छू रहा था
ये क्या था, उसका चुपके से बुलाना
ये सच है राह में कांटे बिछे थे
हमें आया नहीं दामन बचाना
हवा में इन दिनों जो उड़ रहे हैं
ज़मीं पर लौट आएँ फिर बताना
गिरे पत्ते गवाही दे रहे हैं
कभी मौसम यहाँ भी था सुहाना
परिंदा क्यूँ उड़े अब आसमाँ में
उसे रास आ गया है क़ैदखाना
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ग़ज़ल-
है छाई बेसबब दिल पर उदासी
तो क्या हमको मोहब्बत हो गई जी?
कभी हो, राह मैं भी भूल जाऊं
बुलाये चीख कर अंदर से कोई
कभी रोशन, कभी तारीक़ दुनिया
तुम्हें भी क्या कभी लगती है ऐसी?
जज़ीरे की तरह है ज़िंदगी अब
उभरती डूबती रहती है ये भी
मेरे सर पर है साया बादलों का
ज़मीं पैरों के नीचे आग जैसी
सदा मेरी कहाँ सुन पाएंगे वो
जिन्होंने ज़िंदगी भर जी ख़मोशी
अभी तक ख्वाब कुछ ज़िंदा हैं लेकिन
मेरी आँखों से शायद नींद खोई
– श्रद्धा जैन