ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
यूँ समन्दर में ठिकाने कर लिये
कश्तियों में आशियाने कर लिये
जब हमें उनकी ज़रूरत आ पड़ी
साहिलों ने सौ बहाने कर लिये
खौफ़ मौजों का न मंज़िल की तलब
अब सफ़र से दोस्ताने कर लिये
धूप झुलसाने लगी जब रूह तक
बादबां के शामियाने कर लिये
साज़िशों पर मुस्कुराकर वक़्त की
हमने कुछ लम्हे सुहाने कर लिये
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ग़ज़ल-
मिला है हमसफ़र इस ज़िन्दगी की राह में ऐसा
कभी दिल की जो गहराई मुझे गहने नहीं देता
न ख़ामोशी ग़वारा है, न सरगोशी का कायल है
जो लब खोलूँ तो दिल की बात भी कहने नहीं देता
न दस्तक ही कभी देता है चाहत के दरीचों पर
ढँकी भी खिड़कियाँ एहसास की रहने नहीं देता
न पाँवों में लहर के बाँधता है मोह के बन्धन
अगरचे मौज में दरिया बहे, बहने नहीं देता
कभी अपना बनाने की न कुछ तदबीर करता है
मगर अपने से बेपरवाह भी रहने नहीं देता
मुसलसल ज़ख्म देता है, वो इन बेज़ारियों से पर
अकेले दर्द भी उनका कभी सहने नहीं देता
कभी अपना-सा लगता है, कभी बेहद पराया-सा
मगर रिश्ते की इस दीवार को ढहने नहीं देता
– आरती अशेष