ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
कहाँ पहुँचेगा वो कहना ज़रा मुश्किल-सा लगता है
मगर उसका सफ़र देखो तो ख़ुद मंज़िल-सा लगता है
नहीं सुन पाओगे तुम भी ख़मोशी शोर में उसकी
उसे तनहाई में सुनना भरी महफ़िल-सा लगता है
बुझा भी है वो बिखरा भी कई टुकड़ों में तनहा भी
वो सूरत से किसी आशिक़ के टूटे दिल-सा लगता है
वो सपना-सा है साया-सा वो मुझमें मोह, माया-सा
वो इक दिन छूट जाना है अभी हासिल-सा लगता है
ये लगता है उस इक पल में कि मैं और तू नहीं हैं दो
वो पल जिसमें मुझे माज़ी ही मुस्तक़बिल-सा लगता है
न पंछी को दिये दाने न पौधों को दिया पानी
वो ज़िन्दा है नहीं, बाहर से ज़िन्दादिल-सा लगता है
उसे तुम ग़ौर से देखोगे तो दिलशाद समझोगे
वो कहने को है इक शायर मगर नाविल-सा लगता है
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ग़ज़ल-
सितारे हार चुकी थी सभी जुआरी रात
बस एक चांद बचा था सो वो भी हारी रात
बताओ कैसे कहाँ तुमने कल गुज़ारी रात
उठायी सूद पे या क़र्ज़ पर उतारी रात
नहीं बुलायी नहीं हमने, ख़ुद-ब-ख़ुद आयी
यहाँ न आती तो जाती कहाँ बेचारी रात
उतारा टाँग दिया रेनकोट खूंटी पर
फिर उससे रिसती रही बूंद बूंद सारी रात
यही हिसाब है अपनी भी ज़िंदगी का दोस्त
नक़द में दिन का किया सौदा और उधारी रात
हमें कफ़न नज़र आने लगी सितारों पर
जो बचपने में सितारों की थी पिटारी रात
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ग़ज़ल-
यूँ तो ज़िंदगी भर हम बनते हैं, सँवरते हैं
कितने हैं जो आख़िर में क़ायदे से मरते हैं
बजता रहता है भीतर एक तानपूरा-सा
सुर नहीं मिलाते क्यूँ इतना शोर करते हैं
देखें तुम भी कितने हो और कितना मारोगे
देखें हम भी कितने हैं हम भी कितने मरते हैं
आईनों से कितने और अक़्स मांगें अपने हम
आओ अब तो जैसे हैं वैसे ही उभरते हैं
आसमान काला और इस क़दर है ज़हरीला
उड़ के थोड़ा-सा पंछी अपने पर कतरते हैं
सच के हाथ क्या आया बेवफ़ाई, मायूसी
न्याय कर नहीं पाये आप जज बशर्ते हैं
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ग़ज़ल-
कभी तो सामने आ बेलिबास होकर भी
अभी तो दूर बहुत है तू पास होकर भी
तेरे गले लगूं कब तक यूँ एहतियातन मैं
लिपट जा मुझसे कभी बदहवास होकर भी
तू एक प्यास है दरिया के भेस में जानां
मगर मैं एक समन्दर हूँ प्यास होकर भी
तमाम अहले-नज़र सिर्फ़ ढूंढ़ते ही रहे
मुझे दिखायी दिया सूरदास होकर भी
मुझे ही छूके उठायी थी आग ने ये क़सम
कि नाउमीद न होगी उदास होकर भी
– भवेश दिलशाद