ग़ज़ल-
ज़िन्दगी जीने का अपना फ़लसफ़ा कुछ भी नहीं
इक पहेली रू-ब-रू है सूझता कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी बस इक मशक़्क़त के सिवा कुछ भी नहीं
इक मुसलसल दौड़ है जिस का सिला कुछ भी नहीं
नक़्श-ए-पा भी वक़्त की आँधी उड़ा ले जाएगी
इस सफ़र में आख़िरश हासिल हुआ कुछ भी नहीं
बद-गुमानी इस क़दर थी उसके मेरे दरमियाँ
उसने क्या-क्या सुन लिया मैंने कहा कुछ भी नहीं
हर जबीं पर इन दिनों चस्पाँ हैं कैसे इश्तिहार
ज़िन्दगी क्या इक नुमाइश के सिवा कुछ भी नहीं
मेरे आँगन के शजर ने बा-समर उसको किया
वर्ना हमसाये से मेरा मसअला कुछ भी नहीं
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ग़ज़ल-
ये माना ज़िंदगी तो इक सफ़र है
सफ़र में हैं मगर जाना किधर है
ख़ुदा जाने कहाँ तक चल सकेंगे
न मंज़िल है न कोई राहबर है
वो क़िस्सा-गोई थी बेशक हमारी
कहानी तो हमारी मुख़्तसर है
अगरचे तयशुदा सब कुछ है फिर भी
तुम्हारा मशविरा मद्द-ए-नज़र है
सुना तो है वो मिलने आ रहे हैं
मगर लगता है ये झूठी ख़बर है
मचा कर देखते हैं शोर हम भी
ये ख़ामोशी तो बिल्कुल बे-असर है
अभी से पाँव क्यों थकने लगे हैं
अभी तो ज़िन्दगी की दोपहर है
नहीं बदला तेरे आने से कुछ भी
वही मंज़र, वही शाम-ओ-सहर है
हमें तो नींद आ जाएगी पल में
उन्हें महफ़िल जमानी रात भर है
– अखिल भंडारी