ख़ुद को भूखा ही रखा और कमाई रोटी
बाप ने तब कहीं बच्चों को खिलाई रोटी
उसकी मेहनत के ही सदक़े में मिली है हमको
उसने जल-जल के है खेतों में उगाई रोटी
बाद मुद्दत के मेरे गाँव में लौटा जब मैं
अपने हाथों से मेरी माँ ने खिलाई रोटी
और माँगेगा भी क्या इस के सिवा बूढ़ा फ़क़ीर
एक कंबल हो अगर और दो ढाई रोटी
हमने खूँ दे के बनाया है ज़मीं को ज़रखेज़
तब कहीं जा के तेरे हाथ में आई रोटी
उसके चेहरे पे ख़ुशी देखने के लायक़ थी
उसने जब पहली दफ़ा गोल बनाई रोटी
मैंने कल शब जो सबब रोने का पूछा उससे
उसने चंदा में इशारे से दिखाई रोटी
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ग़ज़ल-
तेरे आने की आस कर रहे हैं
और ख़ुद को उदास कर रहे हैं
हम तेरे इंतज़ार में कब से
जाने क्या-क्या क़यास कर रहे हैं
है सितम तेरे हो के भी ख़ुद को
हम सुपुर्द-ए-गिलास कर रहे हैं
ख़ुश्क़ सेहरा में कुछ दिवाने लोग
यहाँ वां प्यास-प्यास कर रहे हैं
फिर यक़ीं कर रहे हैं सब उस पर
और ब-होश-ओ-हवास कर रहे हैं
सब मुहब्बत के नाम पर ‘अफ़ज़ल’
जिस्म को बे-लिबास कर रहे हैं
– अफ़ज़ल अली अफ़ज़ल