ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
स्वप्न में उलझे रहे, साकार में उलझे रहे
हम बहुत दिन तक तुम्हारे प्यार में उलझे रहे!
इस सियासत को भी लाखों-लाख प्यादे चाहिए
कार्यकर्ता सिर्फ जय-जयकार में उलझे रहे
निम्न-मध्यम वर्ग की हद पार कर लेने के बाद
उम्र भर कुछ लोग कोठी-कार में उलझे रहे
जो उगाना चाहते थे पुष्ट गेहूँ की फ़सल
खेत में पहुँचे तो खरपतवार में उलझे रहे
करते रहते हैं मिसाइल दाग कर दुश्मन पे वार
दूर से भी लोग नर-संहार में उलझे रहे
घर की सीमा में भी हो सकती है लाखों की ख़रीद
ऑन लाइन हम खुले बाज़ार में उलझे रहे
जन्म ले लेना है जीवन की अगर प्रस्तावना
जन्म से ही लोग उपसंहार में उलझे रहे
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ग़ज़ल-
निराशा यूँ भी कभी काम करने लगती है
थकान देह से मन में उतरने लगती है
जिसे दबोच लिया था किसी ने पीछे से
जो लड़की अपने ही साये से डरने लगती है
अगर मैं करता हूँ थोड़ी भी मुट्ठियाँ ढीलीं
तो मुट्ठियों में कसी रेत झरने लगती है
जो उसका रूप नज़र भर के देखता ही नहीं
वो रोज़ स्वप्न में उसको ही वरने लगती है
शुरू में तेज़-क़दम चलके, बाद में धीमी
नदी, पहाड़ से नीचे उतरने लगती है
वो खींच लेता है उस ख़ास पल को फोटो में
तो यूँ भी वक़्त की नदिया ठहरने लगती है
जो डाल देती है हथियार रोग के आगे
वो अपनी मौत से पहले ही मरने लगती है
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ग़ज़ल-
जिस पे हम रोज़ झगड़ते थे, वो मुद्दा न रहा
बात खुलते ही, किसी बात का परदा न रहा
कली अब ख़ुद ही बुलाती है कई भँवरों को
देह से आगे, कभी प्यार का रिश्ता न रहा
कितनी मेहनत से लगातार बुना है मैंने
मेरी आँखों में किसी और का सपना न रहा
मैं समझता हूँ- ये जोहरी की ग़लतफ़हमी है
कोई हीरा किसी जोहरी को परखता न रहा
चंद बातें थीं जो गुस्से को बढ़ा देती थीं
उम्र के साथ, उन्हीं बातों पे गुस्सा न रहा
जिसके बल पर थी सदा ‘चित भी मेरी, पट भी मेरी’
अब मेरी जेब में वो जादुई सिक्का न रहा
जब से संन्यास लिया फिर न छुआ बल्ले को
कोई चौका न रहा, फिर कोई छक्का न रहा
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ग़ज़ल-
कहीं से भी काग़ज़ के लगते नहीं
ये वो फूल हैं जो महकते नहीं
वो अपनी ही बस्ती से अनजान हैं
जो घर से सड़क पर निकलते नहीं
अखरती है बच्चों की गंभीरता
ये पंछी हैं लेकिन चहकते नहीं
सियासत को हम भी समझते हैं यार
गरजते हैं बादल, बरसते नहीं!
अगर अश्रु घर छोड़ कर चल पड़े
तो फिर तुम उन्हें रोक सकते नहीं
मिले उनकी काया को दो हाथ भी
वो ख़ुद को निहत्था समझते नहीं
वो चलते मिले एक ही राह पर
कई लोग पटरी बदलते नहीं
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ग़ज़ल-
खरे सोने का सिक्का मिल गया है
वो लागत से भी सस्ता मिल गया है
छिपा पाया न वो पहचान अपनी
मुझे उसका मुखौटा मिल गया है
मिसाइल अब निशाना साध लेगी
उसे, उस घर का नक्शा मिल गया है
अभी शादी में हैं दस रोज़, लेकिन
मुझे उस तन पे कब्ज़ा मिल गया है
वो अब खुलकर बहा सकती है आँसू
उसे एकांत कमरा मिल गया है
जो ख़ुद साकार होना चाहता है
मुझे इक ऐसा सपना मिल गया है
चलो, चलकर करें कुछ जोड़-बाकी
हमें अंतिम नतीजा मिल गया है
– ज़हीर क़ुरेशी