ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
तूफां में चल सको तो मेरे साथ तुम चलो
दुनिया उथल सको तो मेरे साथ तुम चलो
बदहाली, भूख में भी सियासत का दौर है
ढर्रा बदल सको तो मेरे साथ तुम चलो
सब जी रहे हैं कल के सुनहरे से ख़्वाब में
गर ला वो कल सको तो मेरे साथ तुम चलो
निर्बल हैं वर्तमान के हालात में सभी
यदि बन सबल सको तो मेरे साथ तुम चलो
झूठे खिताबो-नाम को पाने में सब लगे
इन सब से टल सको तो मेरे साथ तुम चलो
लफ़्फ़ाजी का है मंचों पे अब तो बड़ा चलन
जो इसमें रल सको तो मेरे साथ तुम चलो
इक क्रांति की लपट की प्रतीक्षा में जग ‘नमन’
दे वो अनल सको तो मेरे साथ तुम चलो
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ग़ज़ल-
जीने की इस जहां में दुआएँ मुझे न दो
और बिन बुलाई सारी बलाएँ मुझे न दो
मर्ज़ी तुम्हारी दो या वफ़ाएँ मुझे न दो
पर बद-गुमानी कर ये सज़ाएँ मुझे न दो
सुलगा हुआ हूँ पहले से भड़काओ और क्यों
नफ़रत की कम से कम तो हवाएँ मुझे न दो
वाइज़ रहो भी चुप ज़रा, बीमार-ए-इश्क़ हूँ
कड़वी नसीहतों की दवाएँ मुझे न दो
तुम ही बता दो झेलने हैं और कितने ग़म
ये रोज़-रोज़ इतनी जफ़ाएँ मुझे न दो
तुम दूर मुझसे जाओ भले ही ख़ुशी-ख़ुशी
पर दुख भरी ये काली निशाएँ मुझे न दो
सुन ओ ‘नमन’ तुम्हारा सनम क्या है कह रहा
वापस न आ सकूँ वो सदाएँ मुझे न दो
– बासुदेव अग्रवाल नमन