ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
मिले हस्ती को मा’ना चाहते हैं
हम उनके पास आना चाहते हैं
ग़ज़ल सा तुमको गाना चाहते हैं
वही मौसम सुहाना चाहते हैं
ज़ियादा तो न पाना चाहते हैं
तेरी नज़रों में आना चाहते हैं
निगह तेरी पड़े इतनी तलब है
कहाँ कोई ख़ज़ाना चाहते हैं
परिंदों को क़फ़स मत दीजिये वो
ज़रा-सा आबो-दाना चाहते हैं
रवानी है हवा सी सोच लीजे
किसे क़ैदी बनाना चाहते हैं
मुक़र्रर अफ़सरी अपनी हुई तो
तअल्लुक़ वो बनाना चाहते हैं
तमन्ना कर न दे बेसब्र हमको
तुझे हम भूल जाना चाहते हैं
बड़ी आहंग है ये बह्र वाहिद
ग़ज़ल हम गुनगुनाना चाहते हैं
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ग़ज़ल-
सुख़न को अदब का पता दीजिए
ग़ज़ल, शे’र मत्ला बना दीजिए
रहम कीजिए या सज़ा दीजिए
किया फ़ैसला जो बता दीजिए
न तारीफ़ तो बद्दुआ दीजिए
मगर मुह्र अपनी लगा दीजिए
जला दें न घर ही बुझा दीजिए
शरारों को अब मत हवा दीजिए
मेरे सब्र को और क्या दीजिए?
मेरी मुश्किलों को बढ़ा दीजिए
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ग़ज़ल-
फ़लक पर कहीं भी सितारा न था
हसीं जो लगे वो नज़ारा न था
हर इक ज़ख़्म मंज़ूर था बा-ख़ुशी
मगर तल्ख़ तेवर गवारा न था
उन्हीं गुलशनों में हैं ग़ुंचे खिले
जिन्हें बाग़बाँ ने सँवारा न था
तरफ़दारी उड़ते परों को मिली
मगर डूबते को सहारा न था
लगा क्यूँ हवा सी है छू कर गई
किसी ने भी मुझको पुकारा न था
बदर हो गए हैं वतन से हम्हीं
रही जब न ग़ैरत गुज़ारा न था
मरा जब वो क्यूँ लोग कहने लगे?
अजी हमने वाहिद को मारा न था
– वाहिद काशीवासी