ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
तिनका-तिनका रोज़ उठाकर लाना पड़ता है
हर पंछी को अपना नीड़ बनाना पड़ता है
यह कोयल की चतुराई है या परजीवीपन
अंडों को ग़ैरों के ठौर छिपाना पड़ता है
दुलराओ-पुचकारो लेकिन अनुशासन ख़ातिर
ग़लती पर बच्चों को आँख दिखाना पड़ता है
लक्ष्मण रेखा से सीता के बाहर आने तक
रावण को हर संभव ज़ोर लगाना पड़ता है
दुनिया को रौशन करने की ख़ातिर सूरज को
सदियों से अपने को रोज़ जलाना पड़ता है
शकुनी की उलझायी गुत्थी सुलझानी हो तो
माधव-सा दो-दो को पाँच बताना पड़ता है
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ग़ज़ल-
निगाहें चाँद–तारों पर सभी ऐसे जमा बैठे
यहाँ पानी, हवा, मिट्टी, गगन सबकुछ गवाँ बैठे
कहाँ तो एक रेखा खींचते अपनी बड़ी कोई
महोदय, आप तो खींची लकीरें ही मिटा बैठे
विरोधी पक्ष का है काम रोटी सेंकते रहना
तो फिर ये आप कैसे उँगलियाँ अपनी जला बैठे
मिलाकर हाँ में हाँ सब लोग पहुँचे लिफ़्ट से ऊपर
मगर सच बोलकर हम फिर उसी सीढी पे आ बैठे
जहाँ मुँह खोलना था मौन रक्खा था पितामह ने
प्रतिज्ञा तो बची लेकिन महाभारत करा बैठे
– विनोद निर्भय