ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
पास आती गर्दिशों का डर नहीं है
छत है, दीवारें हैं अपना घर नहीं है
फिर वही हँसकर उछाले जा रहे हैं
जिन सवालों का कोई उत्तर नहीं है
क्या चलेंगे धूप में हम साथ उनके
अपने ही साये जो हटकर नहीं है
क़त्ल कर देगा वो अपनी आँख से ही
क्या हुआ जो आँख में खंजर नहीं है
हाँ, भले हैं याद के प्यालों में आँसू
आँख की ज़द से मगर बाहर नहीं है
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ग़ज़ल-
प्यार का नाम क्या लिया उसने
अपना दामन सजा लिया उसने
गुनगुनाती हुई ग़ज़ल की तरह
दर्द अपना छुपा लिया उसने
क्या ग़रज़ थी उसे शरारत की
हाथ हँसकर जला लिया उसने
उसकी मासूमियत का क्या कहना
रेत पर घर बना लिया उसने
फूलों से, शाखों से, हवाओं से
तितलियों का पता लिया उसने
– विकास