ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
तू किसी ख़्वाब की न हसरत कर
बस मुहब्बत से तू मुहब्बत कर
अपने ग़म को मिला दे तू मुझमें
अपने ग़म मेरे ग़म से राहत कर
तू किसी और की सुनेगा कहाँ
यार तू ख़ुद की ख़ुद शिकायत कर
वस्ल का ख़्वाब ख़्वाब रहना है
हिज्र को ही तू ख़ूबसूरत कर
तू मुहब्बत का है हुनर-वर तो
तू किसी तौर से न नफ़रत कर
एक दो शख्स दिल में रहते हैं
एक दो शख्स की हिफाज़त कर
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ग़ज़ल-
रोशनी-तीरगी, समझना है
ज़िंदगी को अभी समझना है
पास आकर चला गया जो दूर
उसको अब ख़्वाब ही समझना है
ज़िक्र सबकी ही शायरी में है
शायरी, ज़िंदगी समझना है
कोई भी फ़िक्र काम की मैं करूँ
फ़िक्र को काम ही समझना है
कोई तो बात है जुदाई में
क्या है, क्यों है यही समझना है
जो भी है, जितना भी है उसको ही
यार अब ज़िंदगी समझना है
नींद जो ख़्वाब में दिखाएगी
उसको भी ख़ाब ही समझना है
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ग़ज़ल-
कैसी तुम ने गिरह लगाई है
रब्त में हिज़्र की दुहाई है
ज़िक्र हो तेरा और दर्द न हो
दर्द की ये नई ऊँचाई है
मेरी तस्वीर पर नहीं जाना
मैंने हँसते हुए खिंचाई है
इक तेरे वस्ल की तमन्ना में
हमने इक ज़िन्दगी गँवाई है
लफ्ज़ होगा वफ़ा तुम्हारे लिए
मेरी तो उम्र की कमाई है
अपने ही आप से मैं आज़िज़ हूँ
अपने ही आप से लड़ाई है
ख़ुद को ही कील-सा गड़ा पाया
तेरी तस्वीर जब हटाई है
– विजय शंकर मिश्रा