ग़ज़ल
ग़ज़ल
है कहाँ पहचान तेरी, खुशदिली को क्या हुआ
शोखियों को क्या हुआ, तेरी हँसी को क्या हुआ
मुब्तला खुदगर्ज़ियों में हो गये जज़्बात सब
क्या कहूँ अब आजकल की दोस्ती को क्या हुआ
रास्ते भी थम गये हैं मंज़िलें भी खो गईं
रुक गई इक मोड़ पर ये ज़िन्दगी को क्या हुआ
अपनी हस्ती को मिटाता जा रहा है बेखिरद
किसको फ़ुरसत सोचने की आदमी को क्या हुआ
सुब्ह पहले सी नहीं मौसम भी पहले सा नहीं
हो गई बोझिल हवायें ताज़गी को क्या हुआ
नरमियाँ पहले सी अब तेरी शुआओं में नहीं
ये बता ऐ चाँद तेरी रौशनी को क्या हुआ
टूटती ही जा रही है डोर अब उम्मीद की
ये नहीं मालूम मेरी पुख़्तगी को क्या हुआ
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ग़ज़ल
ख़्वाब से डरने लगा हूँ इन दिनों
नींद से मैं भागता हूँ इन दिनों
धड़कनें हैं तेज़, राहें पुरख़तर
मैं सँभलकर चल रहा हूँ इन दिनों
वुसअते-शब, बेबसी, तन्हाइयाँ
इन अज़ाबों से घिरा हूँ इन दिनों
मुझपे भारी है हर इक लम्हा बहुत
फ़िक्र की तह में दबा हूँ इन दिनों
आइना हटकर परे मुझसे कहे
पत्थरों सा हो गया हूँ इन दिनों
कोई बतलाये मुझे मैं कौन हूँ
पहले क्या था और क्या हूँ इन दिनों
बदहवासी बेख़याली में ‘शकूर’
राहे-फ़र्दा ढूँढता हूँ इन दिनों
– शिज्जू शकूर