ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
बढ़ गई है अजी तिश्नगी आजकल
बह रही है यहाँ इक नदी आजकल
खून से सींच रिश्ते रहे थे सभी
रह गये वो कहाँ आदमी आजकल
पास गम आ गये, दूर खुशियाँ हुयीं
है अता ये मुझे ज़िन्दगी आजकल
आपकी ज़िन्दगी रौशनी में रहे
लिख रही दास्तां चाँदनी आजकल
वो निगाहें किसी चाँद से कम नहीं
दे रही जो मुझे रोशनी आजकल
एक तुम मिल गये ज़िन्दगी मिल गयी
रह गई न कोई अब कमी आजकल
लोग क्यों कर भला साथ दे ‘आरती’
पास है जो तिरी मुफ़लिसी आजकल
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ग़ज़ल-
मुझको आपा खोने दो
दिल को पागल होने दो
ग़म की बारिश होने दो
काजल मुझको धोने दो
आँसू झम-झम बरसेंगे
आँखें बादल होने दो
इन पलकों की छाँव तले
मुझको हर पल सोने दो
सब तेरी बातें मानूँ
ऐसे जादू-टोने दो
हसरत जाने कब से मरी
लाश वफ़ा की ढ़ोने दो
– आरती आलोक वर्मा