ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
याद तुम्हारी दिल के अन्दर दब जाए तो अच्छा हो
मेरा बचपन फिर से मुझको मिल पाए तो अच्छा हो
आवारा दिन-रात गुज़रते चैन भरी तन्हा शामें
काश! हवा ज़ुल्फों को छूकर बहकाए तो अच्छा हो
पैरों को अन्दाज़ नही है गड्ढों की गहराई का
घाव दिए बिन रस्ता घर तक पहुँचाए तो अच्छा हो
आज कबाड़ी फिर आया है घर-घर रद्दी लेने को
दर्द भरा हर लम्हा गुज़रा ले जाए तो अच्छा हो
अंगारों के चाँद-सितारे दामन में जिसने टाँके
आह! कभी ये आग उसे भी झुलसाए तो अच्छा हो
गीत ख़ुशी के गाना चाहे पथरीली भू यादों की
प्यार-वफ़ा की फ़स्ल पुनः जो लहराए तो अच्छा हो
नन्ही चिड़िया ख़्वाहिश पाले नभ में ऊँचा उड़ने की
नज़र गढाये बाज-गिद्ध से बच पाए तो अच्छा हो
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ग़ज़ल-
दिल में दर्द बसाया होता
ज़ख्म ज़रा सहलाया होता
सब दर्दों को बाँध इकट्ठा
मिट्टी में दफ़नाया होता
था सपनों का एक घरोंदा
मिलकर संग सजाया होता
अपनी सीमा में ग़र रहते
रिश्ता भी निभ पाया होता
गर ख़ुद्दारी में जीता तो
इज़्ज़त से मुरझाया होता
– तारकेश्वरी तरु सुधि