ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
जीने की आरज़ू है न मरने का डर मुझे
ले चल जुनूने-शौक़ तू चाहे जिधर मुझे
दिल में छुपा के रखती हूँ सबकी नज़र से मैं
इतना अज़ीज़ है ये ग़मे-मोतबर मुझे
जाऊँ किधर ये सोच के ठहरी हुई हूँ मैं
देती नहीं है रास्ता गर्दे-सफ़र मुझे
मेरी निग़ाह उसकी हर इक चाल पर रही
नादान था समझता रहा बेख़बर मुझे
साये में जिसके खेलते बचपन गुज़र गया
आया है आज याद वो बूढ़ा श़जर मुझे
थक कर मैं सो गई हूँ न मुझको जगाओ तुम
मुश्किल से नींद आई है वक्ते-सहर मुझे
शायद पलट के आऊँ ‘सुनीता’ ये सोच कर
मुड़-मुड़ के देखती थी मेरी रहगुज़र मुझे
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ग़ज़ल-
तेरी और मेरी दिलबरी का है
सिलसिला ये जो आशिक़ी का है
ये सिला तेरी बेरूख़ी का है
शौक मुझको जो शायरी का है
तेरी जानिब बढ़ा दिया मैंने
हाथ ये मेरी दोस्ती का है
हर बशर झूमता नज़र आया
इस क़दर ज़ोर मयकशी का है
यार मेरा वो बेवफ़ा ही सही
दिल पे क़ब्ज़ा अभी उसी का है
राह में अपने लूट लेते हैं
दौर ये कैसी रहबरी का है
कैसे छोड़ू ‘सुनीता’ दामन को
साथ अब तो ये ज़िन्दगी का है
– सुनीता पाण्डेय सुरभि