ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
हमारी रूह का रिश्ता क़ुबूल कर लेना
कि जैसे हैं हमें वैसा क़ुबूल कर लेना
तेरे लबों से लिपटकर निगाह लौटी है
मेरी निगाह का बोसा क़ुबूल कर लेना
मेरी किताब के पन्ने तुम्हें बुलाते हैं
ये रूहे-हर्फ़ का न्योता क़ुबूल कर लेना
ये जान, ज़िन्दगी, रोआं लिखा है नाम तेरे
मुहब्बतों का ये तोहफ़ा क़ुबूल कर लेना
नहीं है शर्त कोई इश्क़, इश्क़ है खालिस
करो जो इश्क़ तो सौदा क़ुबूल कर लेना
न कह सकूँ जो सुख़नसाज़ के सलीक़े से
मेरी निगाहों में लिक्खा क़ुबूल कर लेना
हर एक हर्फ़ ने दिल में तुम्हें सजाया है
मेरी ग़ज़ल का ये लहजा क़ुबूल कर लेना
मुहब्बतों के ये धागे दिलों में बँधते हैं
मगर ये प्यार का छल्ला क़ुबूल कर लेना
तुम्हारा नाम छुपाकर लिखा किताबों पर
मुड़ा हुआ वही पन्ना क़ुबूल कर लेना
ये ख़त नहीं है, कोई आरज़ू हमारी है
झिझक भरी ये तमन्ना क़ुबूल कर लेना
तेरी किताब के भीतर छुपा रखा है ख़त
हमारे दिल का ये टुकड़ा क़ुबूल कर लेना
तुम्हारे होंठ बहुत ही हसीन लगते हैं
मेरी ग़ज़ल का ये मिसरा क़ुबूल कर लेना
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ग़ज़ल-
वो अपने दिल में समंदर छुपा के रखता है
न जाने कौन से मंज़र छुपा के रखता है
बड़े नुकीले से खंज़र छुपा के रखता है
मेरे सवालों के उत्तर छुपा के रखता है
ज़रा-सी बात पे भीगी हैं आँखें भी उसकी
कोई तो आग वो अन्दर छुपा के रखता है
वो मेरा दोस्त है लेकिन न जाने किस कारण
हमेशा जेब में खंज़र छुपा के रखता है
मेरी निगाहों की बारिश भिगो न दे उनको
वो मेरे ख़त कहीं छत पर छुपा के रखता है
जो मेरी छाँव में बचपन गुज़ारा करता था
वो मेरे वास्ते पत्थर छुपा के रखता है
न जाने कौन उसे भी दबोच ले आकर
उसे भी डर है कि वो डर छुपा के रखता है
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ग़ज़ल-
मैं बातें कर रहा था आप ही की
वो समझे ये कि मैंने शायरी की
उसी को भूलने पर अड़ रहा हूँ
कि कोशिश कर रहा हूँ खुदकशी की
ग़मों ने हमको घेरा है कि हमसे
ख़ुशी देखी नहीं जाती किसी की
मुहब्बत में कोई मीरा हुई फिर
सदाएँ आ रहीं हैं बांसुरी की
तुम्हारे घर ज़लाते हैं नज़र को
नहीं आदी ये आँखें रौशनी की
नज़र से बस छुआ जाए गुलों को
बदल डालो रवायत आशिकी की
बड़े दिलकश कमीने यार थे सब
बड़ी याद आयीं बेंचें आख़िरी की
मुझे अख़बार की हेडिंग बनाकर
नुमाइश कर रहे हो मुफ़लिसी की
किताबें, पेन, पेन्सिल, डायरी तुम
है परिभाषा यही तो ज़िन्दगी की
बचाना हो अगर दुनिया में ख़ुद को
ज़ुबां सीखो ज़रा तुम आदमी की
किसी कोने में हिचकी बोलती है
कोई याद आई है उस नकचढ़ी की
खिलौने तो बना डाले हैं लेकिन
वो गारंटी न देगा बैटरी की
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ग़ज़ल-
नदी हो या कि दरिया मेरे भीतर ख़त्म होता है
समन्दर हूँ, कहाँ कोई समन्दर ख़त्म होता है
वो होठों के किनारों पे दमकते थे हसीं रोयें
न उसके अक्स जाते हैं, न मंज़र ख़त्म होता है
बँधी है नेह की डोरी खिंचे आते हैं दोनों ही
ये ज़ादू ख़त्म होता है, न मंतर ख़त्म होता है
झुकेगा वो न कम होगी अकड़ मेरी किसी सूरत
अना उसकी, न मेरा ही सिकन्दर ख़त्म होता है
मेरे एहसास पे तारी रवां है वो रगों में यूँ
न वो बाहर ही मिटता है, न अंदर ख़त्म होता है
दिलों में फ़ासले होंगे ख़ुदा भी दूर ही होगा
जहाँ ‘मैं’ ख़त्म होता है ये अन्तर ख़त्म होता है
– सुदेश कुमार मेहर