ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ऐ चाँद माँग तीस दिनों को ज़िया का साथ
जैसे दुल्हन ने माँगा सदा को पिया का साथ
तू माँगना ख़ुदा से मुझे उस यक़ीन से
बाती ने जिस यक़ीन से माँगा दिया का साथ
वनवास में भी साथ रहें हम, महल में भी
हो साथ यूँ हमारा कि रघुवर-सिया का साथ
मिसरे मेरे नसीब के हो जायेंगे ग़ज़ल
बस तू रदीफ़ बनके निभा क़ाफ़िया का साथ
हर रोज़ मत बदलना मेरे दिल तू ख़्वाहिशें
मैं दे सका नहीं किसी बहरूपिया का साथ
जैसे गुलों में गंध है, तितली में रंग हैं
वैसे ही साँस-साँस ‘ज़िया’ ‘अर्ज़िया’ का साथ
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ग़ज़ल-
मुझे सलीक़े से बरबाद भी नहीं करते
अजीब लोग हैं इमदाद भी नहीं करते
कभी-कभी ये लगे भूलते नहीं हो तुम
कभी-कभी ये लगे याद भी नहीं करते
कभी-कभी तो वो फ़रियाद भी नहीं सुनता
कभी-कभी हमीं फ़रियाद भी नहीं करते
सफ़र की सिम्त बढूँ तो सदायें देते हैं
पलट के देखूँ तो इरशाद भी नहीं करते
अगर दुआओं से हर रोग ठीक हो जाता
तो फिर दवाओं को ईजाद भी नहीं करते
ये लब खुले तो तुम्हें माँग लेंगे तुमसे ही
इसी सबब इन्हें आज़ाद भी नहीं करते
जहान वालों से उम्मीद है कि शाद करें
जहान वाले तो नाशाद भी नहीं करते
ख़बर जो होती कि बर्बादियाँ है दिल का नसीब
तो नामुराद को आबाद भी नहीं करते
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ग़ज़ल-
गर उदासी तेरा हूँ मक़्सद मैं
सो रहूँगा उदास बेहद मैं
इस तरफ़ ज़ेह्न, उस तरफ़ है दिल
और दोनों के बीच सरहद मैं
ढूँढने वाले ने कहा आकर
तेरे दिल से हुआ बरामद मैं
आँख ज़मज़म है साँस है आयत
दिल नमाज़ी है और माबद मैं
साहिलों पर टहल रहे हैं लोग
देर से डूब पाऊँ शायद मैं
दफ़्न हैं कितनी ख़्वाहिशें मुझमें
यूँ समझिये हूँ एक मरक़द मैं
– सुभाष पाठक ज़िया