ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
गुज़रे लम्हों के दोबारा पन्ने खोल रही हूँ मैं
थोड़े क़िस्से याद हैं मुझको थोड़े भूल गयी हूँ मैं
सोचा है मैं दर्द छुपा लूँगी अपने आसानी से
सीने में जासूस छुपा है ये क्यूँ भूल रही हूँ मैं
एक सबब ये भी है हँसते-हँसते चुप हो जाने का
अपने ऊपर ज़िम्मेदारी ज़्यादा ओढ़ चुकी हूँ मैं
रोज़ सुबह उठ जाया करते हैं मुझमें किरदार कई
पर बिस्तर से ख़ुद को तनहा उठते देख रही हूँ मैं
इसीलिए बेसब्र हूँ उसके मन की बातें सुनने को
अपने मन की सारी बातें उससे बोल चुकी हूँ मैं
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ग़ज़ल-
बचपन बेशक जाता लेकिन कुछ नादानी रह जाती
बीत गये लम्हों की मुझ पर एक निशानी रह जाती
मेरे इन हाथों में तुम गर अपना हाथ नहीं देते
मुझमें प्यार है कितना मैं इससे अनजानी रह जाती
एक सबब उससे मिलने का ये भी तो हो सकता था
काश के इक-दूजे को कोई बात बतानी रह जाती
सच्चाई थी तल्ख़ बहुत मेरी सपनीली दुनिया से
कैसे मुझमें बाक़ी सपनों वाली रानी रह जाती
इतनी दुनिया जान चुके हम फिर भी अक्सर लगता है
रोज़ सुबह पर्दा हटने पर कुछ हैरानी रह जाती
बेशक़ तुम ख़ुश रहते अपनी दुनिया में लेकिन फिर भी
थोड़ी-सी तो मेरे बिन तुममें वीरानी रह जाती
कड़वाहट जब घुली हुई है लोगों के मन में तो ‘रूप’
कैसे लोगों की मिश्री-सी बोली-बानी रह जाती
– सोनरूपा विशाल