ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
रोज़ ये एहतमाम करना है
हर सवेरे को शाम करना है
नींद आये भले न रातों में
रात का एह्तराम करना है
वक़्त कितना बचा है दामन में
काम कितना तमाम करना है
ज़िन्दगी अब ज़रा-सी राहत दे
थोड़ी देर अब क़याम करना है
छिन गयी है लबों से जब आवाज़
मुझको ख़ुद से कलाम करना है
नज़्र करना है उसको सारा सुकून
दर्द सब अपने नाम करना है
उसकी यादें लगा के सीने से
अपना जीना हराम करना है
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ग़ज़ल-
उसके कानों तक न पहुँची शामे-तन्हाई की चीख़
रह गयी घुट कर फ़ज़ा में मेरी पसपाई की चीख़
जाहिलों के कान पर रेंगी न अब तक एक जूँ
उड़ती रहती है हवा में रोज़ दानाई की चीख़
गूँजते रहते हैं दुनिया में ठहाके झूठ के
कौन सुनता है भला दुनिया में सच्चाई की चीख़
सारे रिश्ते किस क़दर बेहिस हुए जाते हैं आज
अनसुनी भाई ने कर दी फिर से इक भाई की चीख़
आरज़ू अच्छे दिनों की ये कहाँ ले आयी है
हर तरफ से आ रही है हाय महँगाई की चीख़
इज़्ज़तो-शोहरत की आवाज़ें सुनी किसने ‘सिया’
सारी दुनिया ने सुनी हैं सिर्फ़ रुस्वाई की चीख़
– सिया सचदेव