ग़ज़ल
ग़ज़ल-
क्या कहा जाए, क्या सुना जाए
इससे बेहतर है चुप रहा जाए
तल्ख़ियों को भुला दिया जाए
अब ज़रा चैन से जिया जाए
कौन ढूंढे इलाज़ दर्दों का
ज़ायका ग़म का भी चखा जाए
ख़्वाब अश्कों में बह गए सारे
राख को भी बहा दिया जाए
मैं अधूरा सा इक फ़साना हूँ
क्यूँ मुक़म्मल मुझे पढ़ा जाए
तू नहीं तो तेरा तसव्वुर ही
दर्द-ए-दिल का मेरे बढ़ा जाए
मैं भी तनहा हूँ, चाँद भी तनहा
क्यों न अब रात से मिला जाए
लम्हा लम्हा उधड़ रही हूँ सिया
वक़्त का पैरहन सिया जाए
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ग़ज़ल-
तुझमें होता न जो गुरूर इतना
शीशा-ए-दिल न होता चूर इतना
शम्मा आँखों की टिमटामाने लगी
देखकर रुख पे उसके नूर इतना
दिल में खुशफ़हमिया नहीं होतीं
पास आते न जो हज़ूर इतना
आज तक खुद से अजनबी हूँ मैं
क्यों न आया मुझे शऊर इतना
एक छोटी सी बदगुमानी ने
कर दिया आज हमको दूर इतना
चढ़ न पाया नज़र का उसपे खुमार
था वो ज़र के नशे में चूर इतना
कह न पाये कि बेकुसूर हैं हम
हो गया हमसे बस क़ुसूर इतना
बाद मेरे किसी के हो जाना
काम करना मेरा ज़रूर इतना
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ग़ज़ल-
दम उसकी झूठी मोहब्बत का भर रही हूँ मैं
खुद अपने आप को बर्बाद कर रही हूँ मैं
मेरी अना की गया है वो किर्चियां करके
चुभन सी हर घड़ी महसूस कर रही हूँ मैं
यक़ीन प्यार का अब आँधियों की ज़द में है
मुझे संभाल लो आकर बिखर रही हूँ मैं
मैं अपने क़दमों की आहट भी सुन नहीं पाती
ख़ुदा ही जाने कहाँ से गुज़र रही हूँ मैं
तेरे ख़ुलूस ने इतना किया मुझे मोहतात
खुद अपने जिस्म के साये से डर रही हूँ मैं
लगाओ अब मेरी कमज़ोरियों का अंदाज़ा
जो वादा करके भी तुमसे मुकर रही हूँ मैं
मेरी हयात में दो चार लम्हे बाक़ी हैं
ठहर जा मौत ज़रा सा संवर रही हूँ मैं
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ग़ज़ल-
मसाइब हमसफ़र रहते हैं मेरे
मरासिम दर्द से ग़हरे हैं मेरे
कोई जब पोंछने वाला नहीं है
तो फिर ये अश्क़ क्यों बहते है मेरे
सभी रस्ते हुए मसदूद जब तो
तेरी जानिब क़दम उट्ठे हैं मेरे
मुझे ग़ैरों से कब शिकवा है कोई
मुख़ालिफ़ आज तो अपने हैं मेरे
नहीं आती मुझे तख़रीबकारी
नज़रिये आपसे अच्छे है मेरे
कहा उसने सिया साँसो पे तेरी
तेरी हर फ़िक्र पर पहरे मेरे
– सिया सचदेव