ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ज़रूरतों के मुक़ाबिल कभी उठा कीजे
ज़ुबान रखते हैं तो चुप भी मत रहा कीजे
सही ग़लत ये ज़माना बताएगा इक दिन
जो दिल कहे वो सुना कीजिए, लिखा कीजे
खुले मिलेंगे वहाँ दर जहाँ मुहब्बत हो
तमाम इक-से नहीं होते, हौसला कीजे
जहां न जाने समझ क्या ले इन्किसारी को
बहुत ज़ियादा कहीं आप मत झुका कीजे
किसे पता कि बदल जाए यह नसीब कहाँ
कभी न कोशिशों से पहले फ़ैसला कीजे
वजूद क्या है चराग़ों का चाँद-तारों में
सो आसमां से ज़रा फ़ासिला रखा कीजे
शिकायतें तो लगी ही रहेंगी ज़िंदगी से
मसर्रतों से तग़ाफुल ‘शकूर’ क्या कीजे
मुक़ाबिल= सामने, इन्किसारी=
मसर्रतों= ख़ुशियों, तग़ाफुल=
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ग़ज़ल-
इस जाँ के जाते-जाते तमन्ना निकल गयी
ख़ामोश थी जो शम्अ वो आख़िर को जल गयी
आज़ार ने बदन पे मेरे घर बना लिया
यह ज़िन्दगी यूँ रंज के कालिब में ढल गयी
आपस की तल्खियों को वरक़ में छुपा दिया
कुछ पल को लड़खड़ाई थी निस्बत सँभल गयी
याराने रास्तों से निकल आये शहर के
सो यूँ हुआ कि मेरी तबीअत बहल गयी
बाग़ों में खिल गये नये रंगों के गुल ‘शकूर’
जब मुस्कुराया दिल तो ये रुत ही बदल गयी
आज़ार= कालिब= निस्बत= लगाव
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ग़ज़ल-
पूरा सच ये नहीं तकरार अलग करती है
दर न हो तो हमें दीवार अलग करती है
जोड़कर रखती है आपस में मुहब्बत लेकिन
ये सियासत है जो हर बार अलग करती है
इक ज़माने से यही काम है इस दुनिया का
कि ये किस्सों में से किरदार अलग करती है
ये ग़नीमत है कि खुद में अभी तक बाकी हूँ
मुझको मुझसे निगह-ए-यार अलग करती है
दूसरी सुब्ह मैं लौट आता हूँ सूरज की तरह
रात तुमसे मुझे बेकार अलग करती है
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ग़ज़ल-
था इंतज़ार मुझे चाँद के निकलने का
ये वक़्त है मेरे एहसास के पिघलने का
सुनहरे रंग की दिखती है ज़िंदगी यारो!
है पुरसुकूँ ये नज़ारा अलाव जलने का
वो आँच छोड़ गया मुस्कुराते होंठों की
किया था अहद कभी जिसने साथ चलने का
वो लड़खड़ा गया ख़ुद हाथ छोड़कर मेरा
जो दे रहा था मुझे मशविरा सँभलने का
उनींदी पलकों तले देखता रहा शब भर
नज़ारा ख़्वाब के परछाइयों में ढलने का
न मेरे पंख खुले और न ज़िन्दगी बदली
मुझे न आया हुनर बख्त को बदलने का
– शिज्जू शकूर