ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
विरासत को बचाने गाँव के खण्डहर बुलाते हैं
शहर वालों तुम्हें पुरखों के बूढ़े घर बुलाते हैं
समझकर तुम जिन्हें बेजान पत्थर छोड़ आए हो
वो आँगन राह तकता है, ये बामो-दर बुलाते हैं
चिता को अग्नि देना ही, नहीं बस धर्म बेटे का
दवा बिन खाँसती अम्मा, के कातर स्वर बुलाते हैं
मिलेगी दाल-रोटी पर, बहुत ही स्वाद आएगा
ख़ुशी को बाँटकर खाते, हुए लंगर बुलाते हैं
गली, चौपाल, वे पनघट, सुहानी छाँव पीपल की
यहाँ बदला नहीं कुछ भी, वही मंजर बुलाते हैं
कभी ‘अनजान’ शहरों से, निकलकर गाँव तो आओ
गले अपने लगाने को, तुम्हे छप्पर बुलाते हैं
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ग़ज़ल-
स्वार्थ के संसार में मत पूछ सच्चा कौन है
पास गर पैसा नहीं तो आज अपना कौन है
वक़्त अच्छा हो अगर तो दोस्त बन जाते सभी
पर मुसीबत की घड़ी में साथ देता कौन है
हो गए मायूस गर निर्धन भी तेरे द्वार से
ऐ ख़ुदा! फिर ये बता उनका सहारा कौन है
गर मिले मौका सभी फिर लूटते दिल खोलकर
इस जगत में आदमी ईमानवाला कौन है
एक-दूजे को गिराकर बढ़ रहे हैं आदमी
क्या पता ‘अनजान’ अब अपना-पराया कौन है
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ग़ज़ल-
लिखा तो है किताबों में बुराई हार जाती है
मगर इस घोर कलियुग में भलाई हार जाती है
कचहरी, कोर्ट, थाने में नहीं चलती ग़रीबों की
मियाँ अक्सर अदालत में सच्चाई हार जाती है
बहू की मँहगी साड़ी से, कभी बेटे की बोतल से
महज दस-बीस की माँ की दवाई हार जाती है
कफ़न की जेब में जायेगी केवल पुण्य की दौलत
ख़ुदा के घर में हर काली कमाई हार जाती है
पहनकर संत का चोला, उड़ाते मौज पाखंडी
मगर जब पोल खुलती है ख़ुदाई हार जाती है
कमा कुछ नेकियाँ ‘अनजान’ आखिर काम आएँगी
ख़ुदा की उस अदालत में बुराई हार जाती है
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ग़ज़ल-
क़ायदे अच्छे किताबों में हमें लिक्खे मिले
आज़माने पर नियम-क़ानून सब उलटे मिले
राह में सच की हमें पिछड़ा दिखा हर आदमी
झूठ का दामन पकड़कर तेज़ सब चलते मिले
ख़त्म होती जा रही इंसान से इंसानियत
भेड़ियों की शक्ल में अब आदमी ढलते मिले
सभ्यता, आदर्श का परचम उठाये लोग ही
लूट, चोरी में सदा हमको खड़े आगे मिले
कौन है अपना-पराया, स्वार्थ के संसार में
खून के प्यासे यहाँ पर खून के रिश्ते मिले
होंठ पर मुस्कान, पर खंजर छिपाए जेब में
एक ही इंसान के ‘अनजान’ सौ चेहरे मिले
– अरविन्द उनियाल अनजान