ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
रूह में तुम क़ल्ब में तुम हो कहाँ शामिल नहीं
ऐ मुहब्बत! जो नहीं तुम तो कहीं महफ़िल नहीं
आँधियाँ ग़म की हज़ारों लाख तूफ़ां चूमकर
मुस्कराती ज़िंदगी हाेती कभी ग़ाफ़िल नहीं
गौर से जो देखते हैं वक़्त की रफ़्तार को
वो मुसाफ़िर जानते हैं दूर अब मंज़िल नहीं
हो गईं बेदम हज़ारों तल्ख़ियाँ हर साजिशें
टूटकर बिखरे जो छन से काँच का यह दिल नहीं
है हसीं जो कुछ ज़हाँ में सब उसी के नूर से
तीरगी को पर ‘अधर’ ये रोशनी हासिल नहीं
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ग़ज़ल-
फ़ासले सब भरा नहीं करते
क्यों यकीं तुम ज़रा नहीं करते
ग़म रहेंगे हयात में तब तक
इश्क़ जब तक खरा नहीं करते
दोस्त सच्चे सदा हँसाते हैं
घाव दिल का हरा नहीं करते
नूर फैला उन्हीं चराग़ों का,
जो हवा से डरा नहीं करते
बात मरने की मत ‘अधर’ करना
यूँ सुख़नवर मरा नहीं करते
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ग़ज़ल-
हज़ार वादे किये थे लेकिन निभा सके न वफ़ा मुहब्बत
घुटन, उदासी, ग़मों को पीकर सहे हमेशा ज़फ़ा मुहब्बत
ये माना फ़ानी ज़हाँ है फिर भी रहे सलामत अमर निशानी
कई युगों की कहानी कहती कभी न होगी दफ़ा मुहब्बत
किशन बदन है तो रूह राधा यही बताए हर एक ज़र्रा
इसी समर्पण की भावना से हुआ हसीं फ़लसफ़ा मुहब्बत
करे इज़ाफ़ा ख़ुशी में अक्सर जो रिश्ते-नाते कमाये दिल से
अग़र रक़म बदगुमानी है तो करेगी कब तक नफ़ा मुहब्बत
तुम्हे था मश्कूर जिसका होना उसी को आँखे दिखा रहे हो
तभी अधर पर मलाल देकर हुई है तुमसे ख़फ़ा मुहब्बत
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ग़ज़ल-
साल दर साल यूँ गुज़रते हैं
ख़्वाब हर बार कुछ सँवरते हैं
काश उल्फ़त निभा सको तुम भी
जिस्म क्या जाँ तलक निखरते हैं
ज़िन्दगी में रहे सदाकत ही
ये दुआ बेपनाह करते हैं
शूल-सा क्यों मिज़ाज रखना है
फूल बनकर चलो बिखरते हैं
गर ख़ुशी का अधर समां हासिल
ग़म कहाँ पास तब ठहरते हैं
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ग़ज़ल-
साथ जो सच के आज होते हैं
शख़्स वो सरफ़राज़ होते हैं
बाँटते हैं शिफ़ा ज़माने को
दिल वही तो नवाज़ होते हैं
वक़्त ही है तबीब माना, पर
मर्ज़ कुछ लाइलाज़ होते हैं
जब तलक़ सच बयां नहीं होता
राज़ तब तक ही राज़ होते हैं
इश्क़ में है अगर वफ़ा शामिल
पाँव में तख़्त-ताज़ होते हैं
– शुभा शुक्ला मिश्रा अधर