ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
वक़्त आख़िर ले गया वो शोख़ियाँ, वो बाँकपन
फूल से चेह्रे थे कितने और थे नाज़ुक बदन
चल पड़े जब जानिबे-मंज़िल तो फिर ऐ हमसफ़र
क्या सफ़र की मुश्किलें, क्या दूरियाँ, कैसी थकन
हम नहीं तोड़ेंगे अपना इत्तेफ़ाको-इत्तेहाद
कर चुके हैं फ़ैसला यह अब सभी अहले-वतन
उनकी साजिश है कि बस नामे-वफ़ा मिटता रहे
मेरी कोशिश है फले फूले वफ़ाओं का चलन
जश्न होगा फिर वफ़ा का दोस्ती का एक दिन
फिर सजेगी प्यार के एह्सास की इक अंजुमन
जो भी हैं ‘शायान’ अहले-ज़र्फ़ उनको खौफ़ क्या
उनके आगे सरनिगूं हैं वक़्त के दारो-रसन
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ग़ज़ल-
सफ़र कहने को जारी है मगर अज्मे-सफ़र ग़ाइब
ये ऐसा है कि जैसे घर से हों दीवारो-दर ग़ाइब
हज़ारों मुश्किलें आयीं वफ़ा की राह में मुझ पर
कभी मंज़िल हुई ओझल, कभी राहे-सफ़र ग़ाइब
अजब मंज़र ये देखा है ख़िरदवालों की बस्ती में
यहाँ सर तो सलामत थे मगर फ़िक्रो-नज़र ग़ाइब
हसीं मौसम ने नज़रें फ़ेर लीं अपने तगाफ़ुल पर
हुए रफ़्तारे-दुनिया के सबब शामो-सहर ग़ाइब
परिन्दो! लौट कर आना ज़रा जल्दी उड़ानों से
न हो जाएँ कहीं आँगन से ये बूढ़े शजर ग़ाइब
ये किसकी सुर्ख़िये-रुख शाम के चेह्रे पे उतरी है
कि जिसके रंग में मिलकर हुए ज़ख्मे-जिगर ग़ाइब
कमी पहले ही थी ‘शायान’ अहले-ज़र्फ़ की लेकिन
नज़र से हो रहे हैं आजकल अहले-नज़र ग़ाइब
– शायान क़ुरैशी