ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ऐसा है जब नियत अच्छी होती है
रिश्तों में भी बरकत अच्छी होती है
बेबाकी भी दिलकश होती है लेकिन
कुछ बातों में लुकनत अच्छी होती है
जिन आँखों में अश्क़ पराये होते हैं
उन आँखों की सोहबत अच्छी होती है
घर में चाहे कम हो कोई हर्ज नहीं
दिल में थोड़ी वुसअत अच्छी होती है
आसां कब है मजमे से हट कर चलना
लेकिन ऐसी जुर्रत अच्छी होती है
इक पल लड़ते दूजे पल मिल जाते हैं
बच्चों की ये आदत अच्छी होती है
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ग़ज़ल-
याद की पोटली निकलती है
रात से रोशनी निकलती है
मुश्किलें राह भी दिखाती हैं
पत्थरों से नदी निकलती है
चाहे जितना भी वह मुकम्मल हो
आदमी में कमी निकलती है
इस्तेफ़ादा है साथ चलने में
बात से बात ही निकलती है
जब भी दिल की तलाशी लेती हूँ
तेरी ख़्वाहिश छुपी निकलती है
सोचती हूँ जो तेरी बातों को
बैठे-बैठे हँसी निकलती है
शोर कितना भी तेज़ हो चाहे
बाद में ख़ामशी निकलती है
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ग़ज़ल-
नेक बंदों का रक़्स जारी है
हक़ पसंदों का रक़्स जारी है
धुन पे ज़िन्दा दिली की ऐ लोगो!
दर्द मंदों का रक़्स जारी है
आदमीयत के क़त्लेआम पे भी
ज़र पसंदों का रक़्स जारी है
तेरे इक कुन की आस में मौला
तेरे बंदों का रक़्स जारी है
नफ़रतों के महाज़ पर ‘शहनाज़’
शर-पसंदों का रक़्स जारी है
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ग़ज़ल-
फिर उसी इक ख़याल में उलझे
ज़िन्दगी तेरे जाल में उलझे
आख़िर उनका जवाब क्या होगा
रात भर इस सवाल में उलझे
हर ज़रूरत थी शौक़ की क़ातिल
उम्र भर इस मलाल में उलझे
फ़िक्र-ए-फ़रदा का वक़्त ही न मिला
रख के माज़ी को हाल में उलझे
बे-ख़याली में नाम ले बैठे
यूँ सहेली की चाल में उलझे
हमसे आज़ाद ख़ुद रहा न गया
हिज्र में या विसाल में उलझे
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ग़ज़ल-
उधर से जो हैं इशारे शुमार कौन करे
कि हम हैं जीते कि हारे शुमार कौन करे
न आना नींद का भी इक अजब मुसीबत है
अब इतने सारे सितारे शुमार कौन करे
हँसी तो बाँट दी सारी तुम्हारी महफ़िल में
मगर ये दर्द हमारे शुमार कौन करे
कहाँ-कहाँ से हैं गुज़रे तेरे ख़याल में हम
वो धूप-छाँव नज़ारे शुमार कौन करे
गुज़र गये यूँ तो सारे ही दिन मगर अफ़सोस
तुम्हारे बिन जो गुज़ारे शुमार कौन करे
तुम्हारी राह में जो भी मिला क़ुबूल किया
थे फ़ायदे कि ख़सारे शुमार कौन करे
गिराने वाले तो ‘शहनाज़’ चंद होते हैं
न दिखने वाले सहारे शुमार कौन करे
– शहनाज़ सिद्दीकी