ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
मुद्दतों रूबरू हुए ही नहीं
हम इत्तेफाक़ से मिले ही नहीं
चाहने वाले हैं सभी उनके
वो सभी के हैं बस मेरे ही नहीं
दरमियाँ होता है जहाँ सारा
हम अकेले कभी मिले ही नहीं
वो बहाने से जा भी सकता है
हम इसी डर से रूठते ही नहीं
सादगी से कहा जो सच मैंने
वो मेरे सच को मानते ही नहीं
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ग़ज़ल-
हमारी बात उन्हें इतनी नागवार लगी
गुलों की बात छिड़ी और उनको ख़ार लगी
बहुत सम्हाल के हमने रखे थे पाँव मगर
जहाँ थे ज़ख्म वहीं चोट बार-बार लगी
क़दम-क़दम पे हिदायत मिली सफ़र में हमें
क़दम-क़दम पे हमें ज़िंदगी उधार लगी
नहीं थी क़द्र कभी मेरी हसरतों की उसे
ये और बात कि अब वो भी बेक़रार लगी
मदद का हाथ नहीं एक भी बढ़ा था मगर
अजीब दौर कि बस भीड़ बेशुमार लगी
– संजू शब्दिता