ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
भला अब फ़ायदा क्या है यूँ रिश्तों की दुहाई से
हदें पहले तो तुमने तोड़ डालीं बेहयाई से
भरोसा मत करो बेशक मगर तुम भाई ही तो हो
मुझे कैसे ख़ुशी होगी तुम्हारी जगहंसाई से
वो रूठा भी तो आख़िरकार मुझसे इस तरह रूठा
कि जैसे रूठ जाएँ चूड़ियाँ ज़िन्दा कलाई से
कभी तो इनकी गर्माहट मिलेगी मेरे अपनों को
जो रिश्ते बुन रहा हूँ मैं, मुहब्बत की सलाई से
अगर तुम माँगते तो मैं मना कर ही नहीं पाता
मगर तुम ही बताओ क्या मिला तुमको लड़ाई से
हवस है तुमको दौलत की, मुबारक हो तुम्हें दौलत
हमें क्या लेना-देना है, तुम्हारी उस कमाई से
मई और जून हैं तो धूप के तेवर भी तीखे हैं
मगर उम्मीद के बादल भी आयेंगे जुलाई से
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ग़ज़ल-
वर्चुअल दुनिया में रिश्तों की तलाश
पत्थरों में जैसे साँसों की तलाश
तितलियों, फूलों, खिलौनों की तलाश
सिर्फ़ इतनी-सी है बच्चों की तलाश
आप क्या सरकार हैं या धर्म हैं
आपको फिर क्यों है गूंगों की तलाश
हम तो बस इंसान थे, इंसान हैं
हमको कब थी देवताओं की तलाश
कितनी मुश्किल हो गयी है आजकल
ख़ौफ से बेख़ौफ़ चेहरों की तलाश
ये ख़ुदा के पास का अहसास है
सुरमई आँखों में झीलों की तलाश
कौन-सी दुनिया में ले कर जाएगी
रोशनी में ये अंधेरों की तलाश
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ग़ज़ल-
सफ़र में अब नज़र के सामने मँझधार है
अनाड़ी नाख़ुदा के हाथ में पतवार है
सियासी युद्ध में अब भंग हैं सारे नियम
जहाँ मौक़ा मिले अब उस जगह पर वार है
ज़ियादातर नहीं है काम की अब शाइरी
बनावट से भरी ख़ुशबू से ख़ुशबूदार है
सियासत की नज़र धुंधला गयी है देखिये
उसे दिखता नहीं जो सामने अम्बार है
बचा है नाम ही अख़बार कहने के लिए
किसी का ऐसा लगता है कि ताबेदार है
ज़रूरत है वतन को आज सबके ख़ून की
बताएँ तो किसे इस बात से इनकार है
तरक्की मानते हैं आप कुछ भी मानिये
हमें तो सिर्फ़ दिखती है जो वो रफ़्तार है
मिलेगा एक ही उत्तर भले कुछ पूछिए
कहानी में उसे इस बात का अधिकार है
नहीं है मंत्रियों के पास भी कोई जवाब
प्रजाजन के सवालों से घिरा दरबार है
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ग़ज़ल-
हमारे साथ ने जिसको करिश्माई बना डाला
उसी ने हमको आख़िर में तमाशाई बना डाला
ये सच है मज़हबी हथियार ने सत्ता दिला तो दी
मगर इसने नयी पीढ़ी को दंगाई बना डाला
जहाँ से हम चले थे फिर वहीं आख़िर में जा पहुँचे
हमारी सोच ने हमको क़बीलाई बना डाला
चले हो जीतने दुनिया को लेकिन ध्यान में रखना
समय ने अच्छे-अच्छों को इलाक़ाई बना डाला
दुखी होकर तुम्हारे पास आये थे मगर तुमने
हमारी ज़िन्दगी को और दुखदाई बना डाला
हमें भी डॉक्टर, इंजीनियर बनने की चाहत थी
सियासी मर्कज़ों ने हमको हलवाई बना डाला
अभी भी और कितने ख़्वाब यूँ दिन में दिखाओगे
ये तुमने ज़िन्दगी को भी सिनेमाई बना डाला
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ग़ज़ल-
सागर को जब मथा था तो असुरों के साथ थे
बिल्कुल ग़लत हैं आप कि देवों के साथ थे
जो आज कह रहे हैं कि हम सबके साथ हैं
मालूम कल चलेगा कि चोरों के साथ थे
यूँ तो हमारी बेटियाँ बेटों से कम न थीं
हम ही थे बदनसीब कि बेटों के साथ थे
दावा तो उनका था कि वो कश्ती के साथ हैं
तूफ़ान जब उठा तो वो लहरों के साथ थे
उनको भी अब ख़िताब मिलेगा सितारे-हिन्द
जिनका पता है साफ़ कि गोरों के साथ थे
जब तुम नहीं थे साथ अकेले नहीं थे हम
कोई नहीं था साथ किताबों के साथ थे
– संजीव गौतम