ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
अनगिनत चेहरों की ताबानी से मर जाते हैं हम
आईना ख़ाने में हैरानी से मर जाते हैं हम
बे-ज़मीरी का समंदर पार कर लेने के बाद
अपनी आँखों में बचे पानी से मर जाते हैं हम
अक्ल ज़िंदा रखने की तदबीर करती हैं मगर
वहशते-दिल तेरी नादानी से मर जाते हैं हम
ढूँढते रहते हैं दिन भर अपने होने का सबब
शाम होते ही पशेमानी से मर जाते हैं हम
दश्त को गुलज़ार करते थे मगर अब शहर में
बाग़बा तेरी निगहबानी से मर जाते हैं हम
सौंप देते हैं अधूरे ख़्वाब बच्चों को सलीम
और उसके बाद आसानी से मर जाते हैं हम
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ग़ज़ल-
जिन रागों में दर्द सुनाया जा सकता है
क्या उन पर खुशियों को गाया जा सकता है
यादें जब चेहरा बुनने लग जाएँ तो फिर
तन्हाई का जश्न मनाया जा सकता है
सच कहने की ज़ुर्रत पैदा हो जाये तो
अपने आप को ज़हर पिलाया जा सकता है
चाहे कितना ज़हरीला हो मौसम दिल का
कम से कम एहसास बचाया जा सकता है
ख़्वाबों की गुंजाइश ख़त्म हुई जाती है
अब ये शहर भी छोड़ के जाया जा सकता है
जिस्म के छोटे से पिंजरे का क़ैदी रह कर
आख़िर कितना पर फैलाया जा सकता है
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ग़ज़ल-
तमाम शहर को हैरत मे डाल सकता हूँ
मैं ख़ुद को जिस्म से बाहर निकाल सकता हूँ
मुझे अज़ीज़ है सहरा की तिश्नगी वरना
रगड़ के एड़ियाँ पानी निकाल सकता हूँ
मैं आज अपने लिए भी कहाँ मयस्सर हूँ
मैं कल के वादे पे दुनिया को टाल सकता हूँ
काशीद कर के मैं ज़ख़्मों से रोशनी एक दिन
ऐ ज़िंदगी तेरा चेहरा उजाल सकता हूँ
मेरा जो नींद से रिश्ता बहाल हो जाए
तो मैं भी रोज़ नए ख़्वाब पाल सकता हूँ
सलीम अम्न की कोशिश में ये भी क्या कम है
फ़िज़ा में एक कबूतर उछाल सकता हूँ
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ग़ज़ल-
आ गयी है रास ज़ख्मों की फरावानी मुझे
सब्ज़ रखती है बहुत अन्दर की वीरानी मुझे
ऐ ज़माने हो गया हूँ अब मैं तेरे काम का
अब गुनाहों पर नहीं होती पशेमानी मुझे
रोज़ ज़ख्मों को खुरचना, दर्द को रखना बहाल
इस तरह होती है अब जीने में आसानी मुझे
अब मुझे आज़ाद कर दे चाहे पर ही काट ले
क़ैद में रहने से होती है परेशानी मुझे
प्यास की शिद्दत ने रक्खा वहशतों को बरक़रार
थक गया आवाज़ देकर दश्त में पानी मुझे
फैल जाना चाहता था मैं तो सदियों पर सलीम
वक़्त ने ही कर दिया लम्हों का ज़िन्दानी मुझे
– सलीम अंसारी