ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
दिखाई भी दे जो, ऐसा लहजा बना रहा हूँ
हुनर को अपने मैं इक तमाशा बना रहा हूँ
ये मेरे चेह्रे पे तुमको जो आँसू दिख रहे हैं
मैं तपते सहरा में बहता दरिया बना रहा हूँ
समुन्दरों की मुख़ालिफ़त तो बहुत है, फिर भी
मैं आसमां पर ज़मीं का नक़्शा बना रहा हूँ
बहुत दिनों से है दरमियां दोस्ती का परदा
उसी में अब इश्क़ का दरीचा बना रहा हूँ
फ़लक को इक टक जो घूरता हूँ तो यूँ है यारो!
फ़लक के चेह्रे पे उसका चेह्रा बना रहा हूँ
बढ़ा रहा हूँ अब उसकी इक दोस्त से तअल्लुक़
उसे जलाने को सर्द चूल्हा बना रहा हूँ
वो ज़र्द माइल दवात से धूप कर रहा है
मैं एक पेनसिल के ज़रिए साया बना रहा हूँ
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ग़ज़ल-
करने को मैं ऐसा भी कर सकता हूँ
तेरे दिल पर क़ब्ज़ा भी कर सकता हूँ
आँख मचोली में आँखों पर पट्टी है
मैं तेरा आँचल मैला भी कर सकता हूँ
मुझको ऐसा करने में आता है मज़ा
प्यार में थोड़ा झगड़ा भी कर सकता हूँ
तेरा चेह्रा दौड़ में अव्वल आएगा
मैं नज़रों का पीछा भी कर सकता हूँ
नेट चला कर आधी रात गए तक मैं
तेरे ग़म को आधा भी कर सकता हूँ
जो मुझको कमज़ोर समझता है ‘आफ़ाक़’
उसका काम मैं पूरा भी कर सकता हूँ
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ग़ज़ल-
मैंने पैकिंग में देर कर दी है
आख़िरी बस भी छूट सकती है
छेड़ दूँ तो मेरी ख़ुशी के लिए
मुझ पे वो झूठ-मूठ चिढ़ती है
देखती है मुझे मुहब्बत से
हाज़ा मिन फ़ज़्ले रब्बी कहती है
दो ही किरदार हैं कहानी में
एक दरिया है, एक कश्ती है
आ गई है वो दोस्त को लेकर
मेरे घर में बस एक कुर्सी है
हिज्र में चेह्रा ज़र्द है, लेकिन
ओढ़नी का कलर गुलाबी है
लड़ रहे हैं सभी मगर ‘आफ़ाक़’
भैंस उसकी है, जिसकी लाठी है
– साबिर आफ़ाक़