ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
कोई कमी थी मेरे हाल-ए-दिल सुनाने में
वगरना कम तो न थे रहम दिल ज़माने में
बस एक बार कहा उसने मुझको संजीदा
फिर उसके बाद लगी उम्र मुस्कराने में
वो जिनके लम्स से जाम-ओ-सुबू चहक उट्ठे
ये कौन लोग हैं आख़िर शराबख़ाने में
तुम्हारी यादों से शिकवा रहेगा आँखों को
इन्हीं का हाथ है रातें बड़ी बनाने में
लगाव दुनिया का बे-जान चीज़ों से देखो
लगे हैं लोग ख़ुदा को भी बुत बनाने में
चराग़-ए-ख़्वाहिश-ए-दिल तो जला लिया लेकिन
धुआँ-धुआँ हुए रौनक़ धुआँ छुपाने में
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ग़ज़ल-
मैं फ़सानों में दर्ज हो जाता
तो किताबों में दर्ज हो जाता
मुझसे तो था निज़ाम-ए-नौ बनना
क्यों रिवाजों में दर्ज हो जाता
शिद्दत-ए-प्यास गर मुक़द्दर थी
मैं सराबों में दर्ज हो जाता
गर निकलता सुकूत-ए-ज़ेह्न से मैं
दिल के नालों में दर्ज हो जाता
दर्द से राबिता न होता तो
वाह-वाहों में दर्ज हो जाता
काश इक दिन मेरा मुक़दमा भी
तेरी बाहों में दर्ज हो जाता
– रोहिताश्व मिश्रा रौनक़