ग़ज़ल
ग़ज़ल-
दादीसा के भजनों जैसी मीठी दुनिया
पहले जैसी कहाँ रही अब अच्छी दुनिया
प्यार मुहब्बत, भाईचारे, मानवता की
नहीं समझती बातें सीधी सादी, दुनिया
दिन-सी उजली रातें भी हो जाये यारों
अँधियारे में रहे भला क्यूँ आधी दुनिया
घर से ऑफिस, ऑफिस से घर फिर कुछ ग़ज़लें
सिमट गई है इतने में ही मेरी दुनिया
नटखट बच्चे, घर की खटपट, मेरी बाँहें
कितनी छोटी-सी है यारों उसकी दुनिया
शहरों में है झूठे दर्पण दरके रिश्ते
गाँवों में है झील सरीखी सच्ची दुनिया
धर्म-दीन की गाँठें बाँधी सरल दिलों में
अपने जाले में आखिर ख़ुद उलझी दुनिया
मैंने सच्ची कुछ बातें फिर दुहराई तो
मुझको कहती है दीवाना पगली दुनिया
जाने कब ‘ख़ुरशीद’ निखारोगे तुम आकर
देहातों की घोर अँधेरी काली दुनिया
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ग़ज़ल-
मातृधरा को शीश नवाने फिर आऊँगा
जननी तेरा कर्ज़ चुकाने फिर आऊँगा
चंदन जैसी महक रही है जो साँसों में
उस माटी से तिलक लगाने फिर आऊँगा
आँसू पीकर खार जमा जिनके सीनों में
उन खेतों में धान उगाने फिर आऊँगा
इक दिन तजकर परदेशों का बेगानापन
आखिर अपने ठौर ठिकाने फिर आऊँगा
गोपालों के हँसी ठहाके यादों में हैं
चौपालों की शाम सजाने फिर आऊँगा
खाट मूँज की, छाँव नीम की, थका हुआ तन
जेठ दुपहरी में सुस्ताने फिर आऊँगा
वन्य फलों की देसी लज़्ज़त होठों पर है
बोर, मतीरे, तेंदू खाने फिर आऊँगा
ताऊ, चाचा, बाबा खेले जिस आँगन में
उस आँगन में दौड़ लगाने फिर आऊँगा
सुख का सहरा जब इस मन को झुलसायेगा
अमराई में राहत पाने फिर आऊँगा
भेद खुलेगा मृगतृष्णाओं का भी इक दिन
पनघट पर ही प्यास बुझाने फिर आऊँगा
छोर गगन का छू पायेगी क्या परवाज़ें
फुनगी पर ही नीड़ बनाने फिर आऊँगा
शहरी बाना तन पर लेकिन मन देहाती
तन मन का यह भेद मिटाने फिर आऊँगा
– ख़ुर्शीद खैराड़ी