ग़ज़ल
ग़ज़ल
कैसा ये दो लफ्जों में पैगाम लिख दिया
पहले सलाम लिख दिया फिर नाम दिया
मेरे लबों की प्यास पे अब्रे-बहार ने
क्यूँ आतिशे-फिराक़ का ये जाम लिख दिया
लिखना था हम को झील की लहरों पे सुब्हे-नौ
सूरज ने वहां ढलते-ढलते शाम लिख दिया
सोई थीं सूखे पेड़ के साये में पत्तियाँ
आँधी ने उन के चैन पे कोहराम लिख दिया
उस की किताबे-जीस्त को मैं ही न पढ़ सकी
उस ने सफ़्हा सफ़्हा मेरे नाम लिख दिया
सीधे वो कैसे कहता मुझे अपने मन की बात
‘कमसिन ‘का शेर उस ने मेरे नाम लिख दिया
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ग़ज़ल
नहीं किया जो अभी तक, वो कर के देखते हैं
हरेक शय की हदों से गुजर के देखते हैं
अकेले हैं तो चलो सज सँवर के देखते हैं
हम अपने आप को ही आँख भर के देखते हैं
बहुत हसीन है, देखा है, चाँद धरती से
लो आज उस की ज़मीं पर उतर के देखते हैं
भुला रखा है हमें जिसने इक ज़माने से
करेगा याद, उसे याद करके देखते हैं
कभी झुके, कभी उठ्ठे, खिले, मिले पिय से
कमाल ऐसे भी उन की नजर के देखते हैं
जिधर भी देखो उधर, खौफनाक मंजर हैं
हरेक शख्स को हम, अब तो डर के देखते हैं
पलक झपकते ही, छूले जमीं का हर कोना
लगे हो पंख ही, जैसे ख़बर के देखते हैं
– कृष्णा कुमारी ‘कमसिन’