ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
जो कभी दिन में न इक बार दिखा करते हैं
वो हमें ख़्वाब में हर रात मिला करते हैं
चाँद-तारों में नज़र आती है तेरी सूरत
आसमानों पे तेरा नाम लिखा करते हैं
जो हमें भूले पुराने किसी किस्से की तरह
भूल जाने का हमीं से वो गिला करते हैं
यादों की डोरियों से धागे चुराकर दिल के
आज भी उधड़े हुए ज़ख़्म सिला करते हैं
इक दफ़ा उसने यूँ ही मुड़ के था देखा हमको
हम उसी दिन से हवाओं में उड़ा करते हैं
जब कभी याद तेरी हद से गुज़र जाती है
हम बहानों से तेरा नाम लिया करते हैं
काश! इक दिन तू कहीं राह में मिल जाए हमें
रोज़ इस बात के होने की दुआ करते हैं
मेरे बिसरे से वतन की जो मुझे दे दे महक
ऐसी हर चीज़ को सौ बार छुआ करते हैं
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ग़ज़ल-
चला गया जो लगा के ठोकर, महल मेरे ख़्वाब के गिरा के
रहा दुआ में मैं माँगता उसको सजदे में अपना सर झुका के
किसी भी रस्ते पे चलना दिल से चिराग़ सच्चाई के जला के
मिलोगे फिर भी उसी से जाकर हैं घर ये सारे उसी ख़ुदा के
न रिश्तों में रह सकेगी गरमी मुहब्बतों की शमां बुझा के
सभी दीवारें गिरेंगी देखो अहम को अपने ज़रा झुका के
मेरी ख़ता तो बता के जाते यूँ चल दिये क्यों मुझे भुला के
मुझे है जीते जी मार डाला गए जो मेरे क़रीब आ के
न मैं ही सोया न अरमां मेरे गया तू जब से इन्हें जगा के
मैं जगती आँखों से दिन में देखूँ जो सपने मुझको गया दिखा के
न डरना चल तू क़दम बढ़ा के नहीं अकेला तू राह में है
ये लाखों तारे जो आसमां पे हैं बोले इतना ही टिमटिमा के
– अंजलि गुप्ता सिफ़र