ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
सब्र की जब इंतिहा होने लगी
आँसुओं से वो हिना धोने लगी
डर रहा हूँ उगने वाली पौध से
ये सदी बारूद क्यों बोने लगी
दोस्ती, इंसानियत, ईमान का
हर ज़ुबां अब बोझ-सा ढोने लगी
फिर कली के हुस्न का चर्चा हुआ
फिर गुलों को ईर्ष्या होने लगी
बेटियों के हाथ पीले हो गए
तब कहीं माँ चैन से सोने लगी
अब नया चश्मा बनाकर क्या करें
आँख ही जब रौशनी खोने लगी
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ग़ज़ल-
आईना भी कमाल करता है
जानलेवा सवाल करता है
रोज़ पकड़े गए रँगे हाथों
रोज़ हँसकर बहाल करता है
इश्क़ में हूँ कोई मरीज़ नहीं
क्यूँ मेंरी देखभाल करता है
अब मकां बेचकर कहाँ जाएँ
हर पड़ौसी बवाल करता है
एक जादू है उसके चेहरे में
हाथ मेरे गुलाल करता है
इश्क़ पे ज़ुल्म, हुस्न का जैसे
हलधरों पे अकाल करता है
– राम नारायण हलधर