ग़ज़ल
ग़ज़ल-
कभी हयात से अपनी कभी क़ज़ा से डरे
मैं वो चराग हूँ जो रात भर हवा से डरे
वो जब से आने लगे घर मिरे अयादत को
ना होना चाहे सही जिस्मो-जां दवा से डरे
जिसे तराश रहा था मैं बन्दगी के लिये
पता चला हैं वो पत्थर भी एक खुदा से डरे
दिखाया करता था हिकमत से मौजिज़े कल जो
वो आज, शहर में फैली हुयी वबा से डरे
सज़ा का खौफ़ ना पाबन्दी-ए-कफ़स का ग़म
के तेरी ज़ुल्फ़ का क़ैदी फ़कत रिहा से डरे
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ग़ज़ल-
अयाग-ए-चश्म से पीना हराम हो जाये
सुबू-ए-लब जो तिरा लुत्फ़ आम हो जाये
बदलती रहती है घर मेरे करवटें खल्वत
जो तू आ जाये तो कुछ इज्दिहाम हो जाये
मुझे ले आया मअज जज़्बा-ए-तसद्दुक वाँ
जहाँ की शाह गदा का गुलाम हो जाये
जो गर है वाकई फारिग तो क्यों न ऐ! कातिल
हमारे क़त्ल की साजिश पे काम हो जाये
इजाफ़ा और सितमगर ज़रा सितम मैं कर
कहीं ना खू-ए-रवां बे खिराम हो जाये
– मक़सूद आलम फारुकी