ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
कठिन ये राहे-गुज़र है हाँ मेरे साथ रहो
तुम्हारे बिन क्या ये घर है, हाँ मेरे साथ रहो
किनारे पर भी भँवर है हाँ मेरे साथ रहो
मुहाल अब तो सफ़र है हाँ मेरे साथ रहो
वही कशिश वही जज़्बात वो ही प्यार हो गर
अभी भी वो ही अगर है हाँ मेरे साथ रहो
जहाँ हर एक ही लम्हा सुहाना होता था
कहाँ ये अब वो शहर है हाँ मेरे साथ रहो
यूँ कौनसा मैं सदा के लिए ही आया हूँ
यहाँ कोई न अमर है हाँ मेरे साथ रहो
तुम्हारे साथ से मुझको ज़मीं फ़लक-सी लगी
ज़मीं ही अब तो शिखर है हाँ मेरे साथ रहो
ये ज़ीस्त तन्हा है ख़ामोश है अकेली है
उदासी इसमें मुखर है हाँ मेरे साथ रहो
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ग़ज़ल-
तमाम उम्र के हिस्से में प्यास छोड़ गया
वो रूह ले गया लेकिन लिबास छोड़ गया
कि दूरियों में भी मेरा ख़याल है उसको
तभी तो ख़ुद को मेरे आसपास छोड़ गया
सुना के शेरो-सुख़न गीत छंद और नग़में
मेरी ज़ुबां पे ग़ज़ल की मिठास छोड़ गया
मुहब्बतों से नवाज़ा था मैंने जिसको कभी
वो दिल के पास ही इक दर्द ख़ास छोड़ गया
जिसे मैं तन्हा न गुमसुम यूँ, रास आती थी
हुई क्या बात वही अब उदास छोड़ गया
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ग़ज़ल-
मुश्किलें तो ज़िन्दगी की तब भुला कर फेंक दीं
आसमां में जब दुआओं की दवा कर फेंक दीं
मैंने कब चाहा भलाई का सिला मुझको मिले
नेकियाँ मैंने कुएँ में तो कमा कर फेंक दीं
तुमने पी हैं पर वही अब तुमको ही खा जाएगी
सिगरटें सारी जो तुमने तो नशा कर फेंक दीं
बच्चों की तो फीस, बापू की दवा का सोचते
ओ शराबी, बोतलें तुमने मज़ा कर फेंक दीं
दाने-दाने को तरसते लोग हैं तुमने मगर
कितनी सारी रोटियाँ यूँ ही पका कर फेंक दीं
मौत तू आई तो इक अदना कफ़न यूँ दे गयी
सबने मेरी सारी चीज़ें ही उठा कर फेंक दीं
– पुष्प सैनी पुष्प