ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
काश उनसे कलाम हो जाए
दिल मेरा शादकाम हो जाए
इक नज़र देख लें मेरी जानिब
सर झुका कर सलाम हो जाए
उम्र भर तक नशा रहे तारी
साक़िया ऐसा जाम हो जाए
तू दुआ कर दे यूँ मेरे हक़ में
कुछ तो मेरा भी नाम हो जाए
सब रहें चैन और मसर्रत से
यह चलन ख़ासो-आम हो जाये
कुछ तो ऐसा करें मेरे मुहसिन
आपके नाम शाम हो जाए
खोल दूँ लब अगर ‘अनीता’ मैं
सारा किस्सा तमाम हो जाए
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ग़ज़ल-
शीत थी और बर्फ बारी भी
रात ग़ुरबत ने यूँ गुज़ारी भी
वो जो बिछड़े तो रो दिये पल में
जान निकली है तब हमारी भी
उसकी ग़लती तो थी मगर दिल ने
ख़ूब की उसपे जां-निसारी भी
माँ को भूले तो यह भी भूल गये
माँ की हम पर है ज़िम्मेदारी भी
आज तो हर क़दम पे मिलते हैं
दोस्त के रूप में शिकारी भी
जिस पे हुस्न-ओ-करम लुटा डाला
उसने कर दी है मेरी ख़्वारी भी
बे-ज़ुबां हो गये थे मुंसिफ तक
दास्तां जब सुनी हमारी भी
– अनीता मिश्रा सिद्धि