ग़ज़ल
ग़ज़ल-
तीरगी से रोशनी का हो गया
मैं मुकम्मल शाइरी का हो गया
देर तक भटका मैं उसके शहर में
और फिर उसकी गली का हो गया
सो गया आँखों तले रख के उन्हें
और ख़त का रंग फीका हो गया
एक बोसा ही दिया था रात ने
चाँद तू तो रात ही का हो गया?
रात भर लड़ता रहा लहरों के साथ
सुब्ह तक ‘कान्हा’ नदी का हो गया
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ग़ज़ल-
इश्क़ का रोग भला कैसे पलेगा मुझसे
क़त्ल होता ही नहीं यार अना का मुझसे
गर्म पानी की नदी खुल गयी सीने पे मेरे
कल गले लग के बड़ी देर वो रोया मुझसे
मैं बताता हूँ कुछेक दिन से सभी को कमतर
साहिबो! उठ गया क्या मेरा भरोसा मुझसे
इक तेरा ख़्वाब ही काफ़ी है मिरे उड़ने को
रश्क करता है मेरी जान परिंदा मुझसे
यक-ब-यक डूब गया अश्कों के दरिया में मैं
बाँध यादों का तेरी आज जो टूटा मुझसे
किसी पत्थर से दबी है मेरी हर इक धड़कन
सीख लो ज़ब्त का जो भी है सलीक़ा मुझसे
कोई दरवाजा नहीं खुलता मगर जान मेरी
बात करता है तेरे घर का दरीचा मुझसे
बुझ गया मैं तो ग़ज़ल पढ़ के वो जिसमें तू था
पर हुआ बज़्म की रौनक़ में इज़ाफ़ा मुझसे
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ग़ज़ल-
मैं भी गुम माज़ी में था
दरिया भी जल्दी में था
एक बला का शोरो-गुल
मेरी ख़ामोशी में था
भर आयीं उसकी आँखें
फिर दरिया कश्ती में था
एक ही मौसम तारी क्यों
दिल की फुलवारी में था?
सहरा-सहरा भटका मैं
वो दिल की बस्ती में था
लम्हा-लम्हा ख़ाक हुआ
मैं भी कब जल्दी में था?
– प्रखर मालवीय ‘कान्हा’