ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
कितने दबाए नींव में पत्थर ये अब न पूछ
क्या लेना है वो पूछ तू नाहक़ ये सब न पूछ
फिर ज़ख्म को न छेड़ तू, फिर से रुलाएगा
बस आँसू पोंछ, रोने का मुझसे सबब न पूछ
तेरी हर एक बात को सुनता हूँ ग़ौर से
आगे अब और मुझसे ज़ियादा अदब न पूछ
सबने ज़रूरतों के मुताबिक़ लिया है काम
मिट्टी हूँ बस ये जान ले, मेरा कसब न पूछ
अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ ही काम ले
इस दौर में किसी से किसी की तलब न पूछ
कुछ देर से सही मगर, आख़िर घर आ गए
इससे ज़ियादा और ग़नीमत तो अब न पूछ
******************************
ग़ज़ल-
मिलन की रात पर अटके हुए हैं
अभी इस बात पर अटके हुए हैं
समन्दर हो गई है बूँद लेकिन
हम इस बरसात पर अटके हुए हैं
मैं समझाइश की कोशिश कर रहा हूँ
वो मुक्के-लात पर अटके हुए हैं
बहुत कुछ कर गुज़रने वाले थे हम
अभी शुरुआत पर अटके हुए हैं।
उजाले आएँगे ज़ुल्मत-क़दे तक
अभी महलात पर अटके हुए हैं
चराग़े-सुब्ह के पेशे-नज़र हम
अँधेरी रात पर अटके हुए हैं
सुपुर्दे-ख़ाक़ होने को हैं ज़ाहिल
मगर शह-मात पर अटके हुए हैं
– ओम प्रकाश मेघवंशी