ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
बुझने लगे हैं अब तो मुँडेरों पे भी दिये
इतनी भी क्या ख़मोशी! अजी कुछ तो बोलिये
आगे बरहनगी यह मुबारक हो आपको
हो सकते थे बस इतना ही, हम जितना हो लिये
बेशक अदब की बात है गोया दुआ-सलाम
सजदे तलक तो ठीक है, तलवे न चाटिये
इश्क़ और आशिक़ी से हमें लेना-देना क्या
हम, हाँ हुई तो ख़ुश हुए और ना पे रो लिये
लुत्फ़-ए-हयात आएगा ज़ेर-ए-क़दम अज़ीज़
कंधों पे बैठ के ही जिये फिर तो क्या जिये
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ग़ज़ल-
करके देखो ज़रा-ज़रा सब कुछ
वस्ल, हिज़्र और वफ़ा-ज़फ़ा सब कुछ
ज़िन्दगी पर लुटा दिया सब कुछ
सोचा-समझा, पढ़ा-लिखा सब कुछ
सब्र का इम्तिहान मत लेना
टूटा तो टूट जाएगा सब कुछ
बस कि मैं ही न हो सका उसका
बाक़ी तो प्यार में हुआ सब कुछ
इश्क़ है या कि कूचा-ए-रहज़न
जो भी गुज़रा, लुटा गया सब कुछ
– ओम प्रकाश मेघवंशी