ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ज़ख्मों पे ज़ख्म खाये ज़माने गुज़र गए
पत्थर भी घर में आये ज़माने गुज़र गए
वो दोस्ती का हो क्या किसी दुश्मनी का हो
रिश्ता कोई निभाये ज़माने गुज़र गए
कैसी है कमनसीबी के ठोकर भी दोस्तो
उसकी गली में खाए ज़माने गुज़र गए
कुछ तो कोई बताए के चौखट पे देर शब
उसको दिया जलाए ज़माने गुज़र गए
आईना है दिवार पे चस्पां उसी तरह
अश्कों को मुँह चिढाये ज़माने गुज़र गए
मेरी निगाह अब भी उसी सिम्त है मगर
खिड़की पे उसको आए ज़माने गुज़र गए
है नाम मेरा अब भी रईसों में ही शुमार
प-फ़ाख्ता उड़ाए ज़माने गुज़र गए
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ग़ज़ल-
आबाद हुए शह्र में शमशान हज़ारों
क़ातिल तेरी शमशीर के एह्सान हज़ारों
जो आप चले आये सरे-बाम क़सम से
होने लगे कुर्बान दिलो-जान हज़ारों
जिस दिन से तुझे जानने का अह्द किया है
ख़ुद भूल गये अपनी ही पहचान हज़ारों
इक तन जो बिका है तो है हंगामा-सा बरपा
बाज़ार में बिक जाते हैं ईमान हज़ारों
लाहौल पढ़े कौन सरे-बज़्मे जहाँ अब
इंसान में पोशिदा हैं शैतान हज़ारों
मशरिक़ में कही जाओ या मगरिब में कही जाओ
दिल में लिये फिरते है हिंदुस्तान हज़ारों
‘नवनीत’ फ़कत तुम ही नहीं वक्त के मारे
हैं दफ्न मेरे दिल में भी अरमान हज़ारों
– नवनीत कृष्णा