ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
वो क़ामयाब है फिर भी ज़मीन पर ही है
बुलंदियों का इशारा ख़ुदा का डर ही है
किसी भी हाल में इससे बचाव है मुश्किल
उठे नदी में कि दिल में भँवर, भँवर ही है
गुलेल और शिकारी ब-ज़िद हैं सदियों से
परिंदा सदियों से उड़ता भी बेख़बर ही है
जहान हुस्न का जिसने ग़ज़ल को बख्श दिया
मुरादाबाद का फ़नकार वो जिगर ही है
समाज ने मुझे जिसकी वजह से इज्ज़त दी
वो शायरी का ख़ुदा से मिला हुनर ही है
अमीरे-शह्र की तक़रीर है बजा ताली
नहीं तो रहना यहाँ दोस्त पुर-ख़तर ही है
मैं बच के बैठा था जिस पे सैलाब की ज़द में
मेरा ख़ुदा, मेरा भगवान वो शजर ही है
पराये शह्र में की है मुलाज़मत मैंने
ठिकाना रहने का अब तो पुराना घर ही है
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ग़ज़ल-
उसका बस्ती में आना-जाना था
नौजवानों का वो निशाना था
आज सुनसान है गली इसमें
शायरों का कभी घराना था
मौत पर माँ की रो रहे थे सब
एक चुपचाप शामियाना था
उसकी यादों में ही रहा हर पल
पास मफ़लर जो इक पुराना था
मैं ख़ुशी से न मिल सका अब तक
मुझको अपनों का ग़म उठाना था
उसने घोंपा छुरा मुझे आख़िर
मेरे साथ उसका दोस्ताना था
ख़ूब मस्ती में जी लिए पंछी
इनका इक शाख पे ठिकाना था
आज बादल खुदा बरस जाते
आज खुल के मुझे नहाना था
– अनिल पठानकोटी