ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
ज़िन्दगी कब वफ़ा निभाती है
मौत आते ही छोड़ जाती है
दिल में जो दफ़्न हो वो ख़ामोशी
शोर बेइंतिहा मचाती है
पार लग जाए ये कहाँ मुमकिन
नाव काग़ज़ की डूब जाती है
चाहतों में घिरी हो ज़ीस्त अगर
चैन ख़ुद का ही भूल जाती है
है ये ख़्वाहिश बड़ी करामाती
उँगलियों पर हमें नचाती है
रब से कुछ कम नहीं दुआ माँ की
हर मुसीबत से ये बचाती है
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ग़ज़ल-
वो ही दीपक हवा को खलते हैं
जो हवा के ख़िलाफ़ जलते हैं
ख़्वाब आँखों में रोज़ पलते हैं
सब हक़ीक़त में कब बदलते हैं
तल्ख़ रिश्तों के गर्म सहरा में
पाँव जज़्बात के ही जलते हैं
एक गिरती हुई इमारत से
लोग बच-बच के ही निकलते हैं
दोस्ती भी उन्हीं से है रुसवा
दोस्त बनकर जो लोग छलते हैं
ये सियासत भी खेल है ऐसा
लोग पैकर जहाँ बदलते हैं
तेरी इन मदभरी निगाहों में
डूबकर हम कहाँ सँभलते हैं
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ग़ज़ल-
ज़िन्दगी के हाथ से फिसला हुआ
वक़्त जो गुज़रा वो फिर किसका हुआ
उस दिये का हौसला ही था कि वो
आँधियों में भी रहा जलता हुआ
जिसने चाहा जोड़ना हर एक को
आदमी अक्सर वही तनहा हुआ
ज़िन्दगी! रफ़्तार तेरी है ग़ज़ब
तुझसे तो हर शख़्स है पिछड़ा हुआ
क़ीमतें बढ़ती गयीं हर चीज़ की
सिर्फ़ इक इंसान ही सस्ता हुआ
पैरवी करता रहा था सच की जो
झूठ की आँखों का वो तिनका हुआ
क्या लगाना दिल से ‘मंजुल’ बेवजह
हर किसी को कब मिला चाहा हुआ
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ग़ज़ल-
मौत की ज़द में ज़िन्दगी क्या है
सहमी साँसों की बेबसी क्या है
पूछ बुझते हुए चराग़ों से
चंद लम्हों की रौशनी क्या है
आज तक कौन ये समझ पाया
मौत क्या है या ज़िन्दगी क्या है
भूख से बढ़ के एक मुफ़लिस की
इस ज़माने में बेकसी क्या है
वक़्त के साथ जो बदल जाये
सोचिए फिर वो दोस्ती क्या है
इश्क़ लगता है कोई जादू है
वरना ‘मंजुल’ ये बेख़ुदी क्या है
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ग़ज़ल-
फ़ितरत है दौरे-नौ की तिजा़रत ज़रा सँभल
नीलाम हो न तेरी शराफ़त ज़रा सँभल
हर मोड़ पर यहाँ है सियासत ज़रा सँभल
महँगी पड़ेगी तुझको सदाक़त ज़रा सँभल
क्यों चाहता है जोड़ना तू सबके दिल यहाँ
भारी पड़े न तुझको ये चाहत ज़रा सँभल
तू बेनका़ब करने चला जिनके जुर्म वो
तुझ पर मढ़ेंगे झूठ की तोहमत ज़रा सँभल
पैक़र में आज इश्क़ के हर ओर है फ़रेब
ख़तरे में तेरे दिल की है दौलत ज़रा सँभल
तू जोड़ तो रहा है ये दुनिया के ताम-झाम
इन सबकी इंतिहा है क़यामत ज़रा सँभल
जो चाहते थे तुझको चढ़ाना सलीब पर
वो अब जता रहे हैं मुहब्बत ज़रा सँभल
– मंजुल निगम