ग़ज़ल-गाँव
ग़ज़ल-
वो अपने सिवा औरों की सोचा नहीं करते
कुछ ऐसे शजर भी हैं जो साया नहीं करते
वो दौर कि आईना वो रखते थे सदा साथ
ये दौर कि आईना गवारा नहीं करते
हम पर्दानशीनों के तरफदार हैं फिर भी
आँखों में हया रखते हैं, पर्दा नहीं करते
ख़ुशबू तो बिखरने से कभी रुक नहीं सकती
हर वक्त हवाओं का ही शिकवा नहीं करते
गिरने दो, संभलने दो उन्हें ख़ुद ही तो अच्छा
बच्चों को हर इक बात में टोका नहीं करते
माँ-बाप का साया जो उठा सर से हमारे
अब कौन दिलासा दे कि ‘चिंता नहीं करते’
चोरों के ‘किरण’ ठाठ हैं इस दौर में देखो
मौके के लिए रात को ताका नहीं करते
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ग़ज़ल-
भले आये नहीं तुमको किसी अंजाम की ख़ुशबू
फ़िज़ा में ख़ुद ही फैलेगी तुम्हारे काम की ख़ुशबू
तुम्ही माने नहीं और चल पड़े ऊँची दुकानों में
मुझे तो आ रही थी ख़ूब ऊँचे दाम की ख़ुशबू
तेरी सेवा-सुश्रूषा है ज़ियारत से कहीं बढ़कर
तेरी गोदी में माँ मिलती है चारों धाम की ख़ुशबू
यहाँ लगता नहीं है जी मुझे उस ओर ही ले चल
जहाँ से आ रही है मेरे प्रभु श्री राम की ख़ुशबू
गली के मोड़ पे देखा था पहली बार जब तुमको
बसी है आज भी मन में मेरे उस शाम की ख़ुशबू
– ममता किरण