हस्तक्षेप
ग़ज़ल जानां…मेरी हमराज़, दस्तरख्वान, दानाई!
शानदार सम्भावनाओं से परिपूर्ण युवा शाइर दीपक शर्मा ‘दीप’ की ग़ज़लगोई का लुत्फ़-ए-मंज़र करते हुए आज के हिंदी-तगज़्जुल़ में रचनात्मकता के खुशनुमा परिदृश्य पर एक संक्षिप्त टिप्पणी
काव्य-कला मानवीय ऊर्जा की कल्पना-प्रसूत अभिव्यक्ति के सम्प्रेषण का सबसे परिशुद्ध कलात्मक रूप है; यानि कि इस कला-विशेष के अवमूर्तन में प्रयोज्य तमाम औजार, इसके परिनिर्माण में व्यवहृत सारा कच्चा-माल व उनके स्रोत और उसकी रचना-तकनीकी में व्यवहार्य समस्त उपकरण- विचार, भाषा और भाषिक-विन्यास के व्याकरणादि: ये सभी चीजें पूर्णतया मानवीय कल्पनाशीलता की निर्मितियाँ हैं, प्रकृति-प्रदत्त नहीं। हमारी भौतिक व प्राकृतिक विरासत के अन्य घटकों की तरह से प्रकृति में पाए जाने वाले निगमनात्मक सत्वों (a-priory entities) जैसे बिल्कुल नहीं। और इसीलिए ऐसा होता है कि व्यक्ति को साहित्य या काव्य-कला की रचनात्मकता का गुण सिर्फ और सिर्फ एक नैसर्गिक गुण के रूप में ही प्राप्त हो सकता है और ये सीखे-सिखाये जाने की चीज़ कतई नहीं।
एक सुप्रसिद्ध लैटिन कहावत है इस संदर्भ में: Poeta nascitur, non fit (Poets are born, not made) अर्थात कवि पैदा होते हैं, बनाये नहीं जाते। और साहित्यिक रचनात्मकता की इसी अद्भुत पूर्व-शर्त के कारण ही ऐसा होता है कि साहित्य या काव्य-कला की रचना का कोई निर्धारित सूत्र नहीं दिया जा सकता। कोई ऐसी वैज्ञानिक विधि या वस्तुनिष्ठ व्यावहारिक नियम-समुच्चय या कोई मान्य तकनीकी क्रियाविधि नहीं गढ़ी जा सकती कि जिसके अक्षरशः अनुपालन करते हुए भी साहित्य या काव्य की रचना की जा सके। एक पंक्ति में सिर्फ इतना ही कि साहित्य-कला या काव्य-कला का एकमात्र स्रोत सिर्फ और सिर्फ व्यक्ति-विशेष की अन्तः प्रेरणा ही हो सकती है।
इस मामले में किन्तु ग़ज़ल नामक यह विधा एक नायाब अपवाद के तौर पर आकर्षित करती है। क्योंकि, जैसा कि हिन्दी ग़ज़लियत के पितृ-पुरूष श्री ज्ञान प्रकाश विवेक ने कहा है, “ग़ज़ल की बुनियादी शर्त उसका शिल्प है।” यानि ग़ज़ल एक छांदस विधा है; और छंद-काफ़िया-मीटर-बहर-रदीफ़ के नियमों के निर्वाह-प्रक्रिया की जानकारी और उसके कार्यान्वयन का धैर्य, अरूज़ (पिंगल-शास्त्र) की मुसल्सल जानकारी तथा छंद-बहर की विशिष्ट लय को काइम रख पाने की अंतर्दृष्टि: मोटे तौर पर तग़ज़्ज़ुल के शिल्प-पक्ष के यही घटक हैं। लेकिन बावजूद इसके कि शिल्प-पक्ष की दृष्टि से भी ग़ज़ल कोई आसान सिम्फ़े-सुखन नहीं, आज की तारीख में यदि हिंदी के समूल साहित्यिक काव्य-जगत में ग़ज़ल की विधा ही युवा-प्रतिभाओं को सबसे ज्यादा आकर्षित करने वाली विधा बनी हुई है, और तग़ज़्ज़ुल की ज़मीन ही वह ज़मीन भी बनी हुई है, जहाँ आज के सम्पूर्ण वैश्विक-साहित्य-जगत में काव्य-रचना के क्षेत्र में स्पष्ट परिलक्षित हो रहे खालीपन के दौर में भी रचनात्मकता की एक अत्यंत संतोषप्रद और खुशनुमा गहमा-गहमी न सिर्फ बरकरार ही है, बल्कि निरंतर उत्तरोत्तर परिष्करण और परिवर्धन की ओर भी उन्मुख है, तो इसके लिए ग़ज़ल के शिल्प-पक्ष के जादूई आकर्षण को ही सबसे बड़ा जिम्मेदार कारक कहा जा सकता है।
ग़ज़लगोई के शिल्प के बारे में पहली बात तो यह है कि ग़ज़लों में नाज़ुकबयानी का अंदाज़ और इसकी संगीतमय ध्वन्यात्मकता इसके शिल्प को साधने से ही आती है; और फिर इसी बात के परिणामी कारक के रुप में दूसरी बात यह हो जाती है कि ‘शिल्प’ तो ‘शिल्प’ है- यानि, कला का ‘वैज्ञानिक’ अथवा ‘तकनीकी’ पक्ष! और इसीलिए, शिल्प एक ऐसी चीज़ भी मानी जा सकती है, जिसे भली-भांति सीखा और सिखाया जा सके। और इसीलिए, बावजूद इसके कि ‘कवि जन्मते हैं, बनाये नहीं जाते’, शिल्प-पक्ष के नजरिए से इतना तो कह ही सकते हैं कि तग़ज़्ज़ुल का शिल्पांतर्गत आने वाला हिस्सा एक सर्वमान्य प्रविधि के जरिए पर्याप्त अभ्यास से पुख्ता तौर पर साधा तो जा ही सकता है।
आज की हिंदी ग़ज़लगोई के परिप्रेक्ष्य में उपर्युक्त भूमिका की आवश्यकता इसलिए है कि हालांकि हिंदी में आज की पीढ़ी द्वारा लिखी जा रहीं ज्यादातर ग़ज़लें सामान्यतया शिल्प और तकनीक की दृष्टि से लगभग दोष-रहित हो रही हैं; लेकिन जैसा कि इस स्तम्भ की पहली कड़ी में ही इंगित किया जा चुका है, ग़ज़लगोई के तकनीकी-पक्ष मात्र को- क़ाफ़िए-बहर-रदीफ़ आदि को- मुसल्सल निबाहते हुए ग़ज़लगोई के व्याकरण की दृष्टि से एक दोषरहित शेर कह लेना और वाकई में एक असरदार शेर कह पाना: ये दोनों ही निहायत अलहदा बातें हैं। और एक जेन्यूइन ग़ज़लगो के लिए शिल्प को साधने के साथ-साथ आवश्यक है शब्दों के उचित चयन का हुनर, उनकी जड़ और निरर्थक ध्वन्यात्मकता में अर्थ-रुपी प्राणों के संचार की क़ाबिलियत, और ग़ज़ल के प्रत्येक शेर की दो पंक्तिओं (मिसरों) में अपने भावों, उद्गारों, अनुभूतिओं आदि के उमड़ते-घुमड़ते हुए सैलाबों और झंझावातों को ‘बूंद में सागर’ के समान समेट पाने की दक्षता! असरदार ग़ज़ल कह पाने के लिए ग़ज़लकार को स्वयं को सक्षम तथा लेखनी को सशक्त बनाना होता है। तब जाकर वह सलीका, वह शऊर और वह सलाहियत उत्पन्न होती है कि ग़ज़लगो ऐसे कलात्मक शेर सृजित करने में समर्थ होते हैं जो ‘लोकोक्ति’ जैसे बनकर मानो हमारी ज़ुबान पर रवां-से ही हो जाते हैं।
नई पीढ़ी के जिन चन्द शायरों में उपरिलिखित ये सलाहियतें बिल्कुल स्पष्टता से नुमायां होती नज़र आती हैं, और जिन चन्द शायरों की ग़ज़लगोई श्री ज्ञानप्रकाश विवेक की इस उक्ति के नजरिये से सद्यः-सफल नज़र आती है कि “एक तराशी हुई ग़ज़ल का एक तराशा हुआ शेर सिर्फ दो मिसरों का मिलाप नहीं होता, न उक्ति होती है, न सूक्ति, अपितु वह एक आकाश होता है- अनुभूतियों का आकाश… ग़ज़ल का एक-एक शेर कहानी होता है।”
ग़ज़लगोई के उन्हीं सर्वाधिक संभावनाशील मुठ्ठीभर हस्ताक्षरों में से एक हैं दीपक शर्मा ‘दीप’, और इन्हीं दीपक शर्मा ‘दीप’ की ग़ज़लगोई है प्रस्तुत स्तम्भ की इस कड़ी की विषयवस्तु।
ग़ज़ल सिम्फ़ के जादूई आकर्षण ने हिन्दी-काव्यरचना के चालू दशक में इतनी बड़ी संख्या में युवा कविओं को अपनी गिरफ्त में लिया है कि हिंदी-काव्य की समस्त विधाओं में ग़ज़ल नाम की इस विधा का करिश्मा ही आज सर्वोपरि नज़र आ रहा है। लेकिन ग़ज़ल सिम्फ के इस आकर्षण और इसके प्रति ऐसी दीवानगी को जन्म देने वाले कारक होने के श्रेय के हक़दार तत्वों में यदि पहला तत्व है अन्य विधाओं की अपेक्षा ग़ज़ल का आम लोगों के साथ तेजी से बढ़ता हुआ जुड़ाव, तो दूसरा तत्व निःसंदेह रूप से यही है कि इस विधा को अच्छी-खासी संख्या में युवा-प्रतिभाओं की ताज़ादम और ताज़ा खयाल रचनाधर्मिता का लाभ मिला है। दीपक शर्मा ‘दीप’ एक ऐसी ही युवा प्रतिभा है: ग़ज़लगोई की ज़मीं को अपनी प्रखर-काव्यात्मकता की उर्वरा-शक्ति से लगातार समृद्ध करने में संलग्न।
‘दीप’ की ज्यादातर ग़ज़लों से गुज़रते हुए आप सबसे पहले और सबसे साफ-महसूस करते हैं उनकी रेशम-सी-मुलायम रूमानियत में पगी और मीठे तरन्नुम से लबरेज़ गुफ़्तगू के जैसी सद्य:-आत्मीय नाज़ुकबयानी की ज़ुबान। एक ग़ज़लगो के रुप में ‘दीप’ की सोच और उनके ग़ज़लों में सन्निहित कथ्यों का एक ख़ास अंदाज़ होता है। उनकी भाषा-शैली, तेवर और कथ्यों के गीतात्मक-सम्प्रेषण की अपनी अलग ही अदा, अलग़ ही अंदाज़ है; जबकि अपनी एक अलग भाषा-शैली और कथ्यों-कथनों की अनन्यता और सम्प्रेषण-शिल्प की अलहदगी के ज़ोर पर अपनी एक अलग ही पहचान-वैशिष्ट्य को रेखांकित कर लिया होना किसी भी कवि या ग़ज़लगो के लिए एक बहुत ही महती उपलब्धि मानी जा सकती है।
ऐसा कहने में तनिक भी अतिश्योक्ति न होगी कि ग़ज़लगोई की ज़मीं पर ‘दीप’ जैसी प्रतिभाओं के प्रस्फुटन का ही परिणाम है कि हिंदी-ग़ज़लगोई आज आमजन की रुचि की चीज़ बने होने के बावजूद भी समस्त काव्य-विधाओं के मध्य अपनी पहचान-वैशिष्ट्य की गरिमा और अपनी काव्यात्मक-उत्कृष्टता को बरकरार रख पाने में सफल सिद्ध हो रही है। वरना कभी वह दौर भी हुआ करता था हिंदी-तग़ज़्ज़ुल में, जब ग़ज़लगोई में प्रयोज्य भाषा की अनगढ़ता पर अपनी भीषण रूप से कुठाराघाती टिप्पणियां करते हुए पंडित रघुपति सहाय ‘फ़िराक़’ कहा करते थे, “उर्दू की जूतियों के चरमराने से जो आवाज़ आती है वही है हिन्दी ग़ज़लगोई की हिन्दी।”
‘दीप’ की ग़ज़लों में सन्निविष्ट समस्त काव्यानुभूतियों और अवबोधनों की प्रतीति ऐसी है मानो वे खुद शाइर के ही अंतरंग निजी जीवनानुभवों और सीधे-तौर पर भोगे गए यथार्थ का ही प्रतिफलन हों। ‘दीप’ की ग़ज़लगोई में विधा की बारीकियां बड़े ही सुन्दर और नैसर्गिक तरीके से आत्मसात हुई होती हैं! स्पष्ट परिलक्षित होता है कि अपने फिक्रो-फ़न के निराले अंदाज़ की बदौलत शाइर अपने मेयार से रत्ती-भर भी समझौता किये बग़ैर ही अक्सर ऐसे शेर रचने में सफल रहता है कि उनकी ग़ज़लों का अंतरंग धीर-गंभीर, अर्थपूर्ण, तर्कसंगत और मन की गहराईओं से प्रस्फुटित हुए होने की प्रतीति देने के साथ-साथ सामान्य पाठकों को भी एक ऐसे भावलोक में ले जाने में सफल हुआ करता है, जहाँ पहुँचकर उनकी ग़ज़लें अपनी न रहकर पाठकों की हो जाती हैं। और ऐसा तभी संभव हो पाता है जब शाइर ने अपने वजूद की गहराइयों में डूबकर रचा हो अपनी रचना का अंतरंग; बहुत कुछ टटोलकर और उसमें से सिर्फ सर्वश्रेष्ठ चुन-छांटकर ही प्रस्तुत कर पाने में सफल हो पाया हो अपने सम्प्रेष्य-भावों को, जिससे कि कथ्य और शिल्प दोनों एकाकार होकर साकार हो जाएँ; नि:शब्द सोच, शब्दों का सहारा लेकर बोलने लगें, चलने लगें और एक अर्थपूर्ण स्वरूप धारण करके एक निराले धज में ही सामने आएं। इसके अलावा भी, दीप की गजलगोई में शब्दों का खेल भी एक निराले तौर का है- कम शब्दों की पेशकश, जिससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि उनकी ग़ज़लगोई कला की महारत और उनकी सोच की परवाज़ सरहदों की हदें छूने के लिये बेताब हैं। शब्द मानो कि महज बीज बोकर अपनी सोच को आकार देते हैं…कभी सुहाने सपने साकार करते नजर आते हैं, तो कहीं अपनी कड़वाहटों का ज़हर उगलते भी दिख पड़ते हैं। ‘दीप’ के तग़ज़्ज़ुल का अंदाज़े-बयां कुछ ऐसा है कि शेरों की पहली पंक्ति पढ़ते ही आप दूसरी पंक्ति सुनने-पढ़ने को अतिशय लालायित हो जाएँ और फिर उसे सुनते ही अभिभूत हो जाएँ; और इनकी ग़ज़लों के अंतरंग की संरचना, जिसके माध्यम से ग़ज़लगो अपने मनोभावों, उद्गारों, अवबोधनों, अनुभूतियों, विचारों, अनुभवों और दुःख-दर्द आदि को अभिव्यक्ति देता है, बड़ी ही सहजता से इतनी परिष्कृत, प्रभावशाली और सच्ची है कि उनसे गुज़रना ज़िंदगी से गुज़रने-जैसा है।
और अब जब हम इतनी बातें कर चुके हैं, मुझे इल्हाम हो रहा है कि ‘दीप’ की ग़ज़लगोई की रेशमी-मुलामियत को पाठक मेरी अनगढ़, गैर-कलात्मक और मोटी-खुरदूरी भाषा में रचित यह वर्णन पढ़कर तो अनुमान लगा पाने से रहा! अतएव, क्या ही अच्छा होगा न ऐसा करना, कि आप स्वयं ही ‘दीप’ के चन्द ऐसे ही नायाब शेर नोश फरमाएं कि जिसमें आपको ऊपरिवर्णित प्रत्येक खासियत के सैद्धांतिक सूत्र का व्यवहारिक रूपांतरण अपनी पूरी सज-धज में देख पाने का लुत्फ़ हासिल हो सके? तो ऐसे ही करते हैं… … …! सो, ये रहे ‘दीप’ की उर्जस्वी लेखनी से जन्में चन्द ऐसे ही शेर:-
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फ़ाइदा क्या है और नुक्सां क्या
इश्क़ ये सोचता, तो होता क्या?
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हिज्र की बाँह फिर धरेंगे हम
इश्क़ को ‘दाल’ कर दरेंगे हम
ज़िन्दगी को ज़हर बनाकर के
एक दिन फांक कर मरेंगे हम
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ज़्यादा ही उड़ रही थी ख़यालों में ज़िंदगी
मारी हक़ीक़तों ने तभी खैंच के गुलेल
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हाय! किसने खैंच दी बेसाख़्ता?
ज़िन्दगी छोटी-बह़र में ठीक थी
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उठा कर चाक पर रक्खो मेरी तक़दीर की माटी
मुझे कुछ और होना है लिखा कुछ और है इसमें
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ऐसी किस्मत कहाँ मेरी, जानां!
जैसी किस्मत तुम्हारे ‘उनकी’ है
***
वो भी देखेंगी, मुस्कुरा देंगी
मैं भी सोचूँगा गुज़र जाऊँगा
ग़ज़ल-नामक इस सिम्फ़े-सुखन के जाने-माने कद्रदान हज़रत अनवर साबरी के लफ्ज़ों में: “ग़ज़ल को छोटी-छोटी बहरों में ढालना तथा उसमें प्रयुक्त थोड़े-से शब्दों में मन की बात कहना और वह भी सहजता से, यह भी एक कमाल की कला है।” सो, ग़ज़ल विधा को कलात्मक बनाने में इसमें सुलझी हुई भाषिक-सम्प्रेषणीयता का बहुत बड़ा हाथ है। और फिर इसी सन्दर्भ में डॉ. जीवतराम सेतपाल के अनुसार: “कम शब्दों में गंभीरता पूर्वक बड़ी से बड़ी बात को भी, नियमों में बाँधकर बड़ी सफलता और सहजता से दोहों की भाँति गहराई से कह देने में समर्थ, गेय, अत्याधिक लयात्मक, काव्य विधा का मख़मली अंग है ग़ज़ल।” इसके अलावा भी अच्छी ग़ज़लगोई की कुछ सर्वमान्य विशेषताएं होती हैं, जिन पर विशेषज्ञता समय के साथ ही हासिल हो पाती है। और ये बड़े ही संतोष का सबब होता है हम सब के लिए ये देखना कि ‘दीप’ की ग़ज़लों में ऐसी एक या दूसरी कोई विशेषता बहुधा नज़र आती रहती हैं। जैसे सरल, सुगम एवं कर्णप्रिय शब्दों में ग़ज़ल-रचना, सर्वसाधारण की समझ में आने वाली मधुर और कर्ण-प्रिय शब्दावली- मूलतया देशज और बोलचाल की शब्दावली के प्रयोग की कोशिश और अभिव्यक्ति-सम्प्रेषण की जटिलता से परहेज- का इस्तेमाल, और कथ्यों और कथनों की पुख्तगी। और ऐसा इसलिए भी है क्योंकि ग़ज़लनिगारी न सिर्फ ‘दीप’ की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक अधिमानित (preferred) रूप है, बल्कि इनकी जुस्तजू सरीखी दीख पड़ती है… ग़ज़लगोई इनके लिए साधना-स्वरूप है। ग़ज़लकार और उसकी ग़ज़लनिगारी की यही सब विशेषताएं और इन्हीं विशेषताओं से भरी-पूरी ग़ज़ल ही जनमानस को मथने में भी सद्यः सफल होती ही है, और अपनी भीनी-भीनी खुशबू से जनमानस को महकाते रहने की कुव्वत भी रखती है।
‘दीप’ अपने रचना-संसार और संवेदनाओं को विराट फ़लक पर यथार्थ से जोड़ने के फ़न में भी माहिर हैं। यह तभी संभव हो पाता है, जब ग़ज़लकार प्रकृति से प्यार करता हो, प्रकृति में अपने प्रिय को देखता हो, प्रकृति को स्वयं के भीतर देखता हो और उसी में गुम हो जाता हो। शायद इसी खो जाने का नाम ही तो ग़ज़ल है। ‘दीप’ अपने दर्द को भी इस तरह बयां करते हैं जैसे वो आम का दर्द बन गया हो। काव्यानुभव में ढलने के लिये रचनाकार को जीवन पथ पर उम्र के मौसमों से गुज़रना होता है और जो अनुभव हासिल होते हैं उनकी दीप के पास इसी उम्र में बहुतायत देखकर ग़ज़ल के भविष्य के प्रति एक खुशनुमा आश्वस्ति का-सा भाव पैदा होता है! अच्छे शेर सहज भाव, स्पष्ट भाषा और उपयुक्त छंद में सम्मिलन का नाम है; और एक की कमी से भी वह रसहीन और बेमानी हो जाता है। शेर में विचार को शब्द सौंदर्य तथा कथ्य का माधुर्य प्रदान करना एक कला है, जिसे बखूबी साधा है ‘दीप’ ने। एक उदाहरण:-
वो किसी और की कहानी है
पर किसी और को सुनानी है
‘मौत’ बैठी है ‘चौधराइन-सी’
ज़िन्दगी उस की नौकरानी है
ख़ून दुनिया में सबसे सस्ता है
और फिर उसके बाद पानी है
दिल्लगी, शा’इरी, सुख़नफ़हमी
हम निठल्लों की ये जवानी है
ठीक हो जाएंगे? अजी बे-शक़
‘कुछ दिनों की ही नातवानी है’
मैं जिसे फ़लसफ़ा समझता हूँ
आप कहते हैं ‘बद-ज़ुबानी’ है
जिसमें हम लोग सिर्फ़ इंसां हों
ऐसी दुनिया भी इक कहानी है
इसके अलावा भी, जैसा कि प्रो. रामचन्द्र ने कहा है “जब तक ग़ज़लकार अपने शेरों में सामूहिक सच्चाइयों के व्यक्तिगत भोग को आत्मसात कर, प्रस्तुत नहीं करता, तब तक उसके काफ़िये और रदीफ़ चाहे जितने सुंदर क्यों न हो, उसका शेर उसकी ग़ज़ल का सही अस्तित्व खड़ा नहीं कर सकता। ग़ज़लकार के अनुभव जब पाठकों के भागीदार बनते है तब जाकर ग़ज़ल की जान सामने आती है।” तो अब इस संदर्भ में, ज़िंदगी की हर राह पर जो देखा, जाना, पहचाना, महसूस किया और फिर परख कर उनको शब्दों के जाल में बुन कर प्रस्तुत किया, उसका अनोखा अंदाज़ देखिये ‘दीप’ की इस ग़ज़ल में-
बिन बोले सब बोल गए तुम
‘बन्द पड़े पट खोल गए तुम’
गश आने पर गिरना तय था
और नचा कर गोल, गए तुम
होश कहाँ हो इन आँखों को
ऐसा ‘जलवा’ घोल गए तुम
इधर पिपिहिरी हो रोया दिल
उधर बजा कर ढोल गए तुम
बड़ी गुज़ारिश की थी तुमसे
हँस कर टाल-मटोल गए तुम
तब से खुल कर पगलाता हूँ
जब से पागल बोल गए तुम
तो कैसे बिक सकता था फिर
कर के जब अनमोल गए तुम
श्री ज्ञानप्रकाश विवेक के मुताबिक़ “अच्छे से अच्छा शेर भी कभी मुकम्मल शेर प्रतीत नहीं होता। … इसलिए (अक्सर) ग़ज़लकार (और शायर) अपनी ग़ज़लों के अश्आर बार-बार और नए-नए ढंग से लिखते रहते हैं। यह निरंतर प्रोसेस ग़ज़ल का होना होता है। लिखे जा चुके शेर भी बार-बार होते रहते हैं।…अवचेतन, हर शेर को कसौटी पर कसता है। इस तरह शेर एक बार नहीं, बार-बार लिखा जाता है और अलग तरकीबों से लिखा जाता है। यानि, ग़ज़लकार का यह ‘प्रोसेस’ बेहद जटिल होता है।” श्री ज्ञान प्रकाश विवेक की इस उक्ति के बरअक्स देखिये, कि इसी बात की ओर कितनी खूबसूरती से इंगित कर दिया है ‘दीप’ ने अपने इस शेर के जरिये:-
ग़ज़ल जानां! मिरी हमराज़, दस्तरख़्वान, दानाई!
मुकम्मल तू नहीं होती मुकम्मल मैं नहीं होता
हो सकता है ‘दीप’ जी… हो सकता है आपकी निगाह में न हुआ हो मुकम्मल आपकी ग़ज़लगोई का फ़न अपने आप में अभी; लेकिन हमारे नज़रिए से देखें तो जो मुकम्मल कर चुके हैं आप अपनी इसी ‘गैर-मुकम्मल’ फ़नकारी की बदौलत, उसके बरअक्स आपकी ग़ज़लगोई से बेसाख्ता, बेइंतहा उम्मीदें लगाए बैठे हैं हम…और वह भी पूरे विश्वास के साथ कि आपकी फ़नकारी हमारी उम्मीदों को रत्ती भर भी ज़ाया न होने देगी!
बातें बहुत सारी बची हुई हैं- ग़ज़ल से सम्बंधित भी और अकेले ‘दीप’ की विशिष्ट ग़ज़लगोई से सम्बंधित भी! लेकिन अफ़सोस कि मेरा अल्पज्ञान और मेरी भाषाई-अनगढ़ता के कारण मेरे लिखे की पठनीयता इतनी कतई नहीं कि पाठक मेरे द्वारा रचित इससे लम्बे आलेख को झेल पाएंगे। और चूंकि पाठक के धैर्य की परीक्षा लेने का मेरा कोई इरादा नहीं (क्योंकि इसी स्तम्भ की अगली कड़ी को पढ़ने के लिए भी तो आमंत्रित करना है उन्हें); उचित यही समझता हूँ कि प्रस्तुत स्तंभ के प्रस्तुत प्रकरण के उल्लिखित शाइर दीपक शर्मा ‘दीप’ की ग़ज़लगोई के अब तक के सम्पूर्ण उपलब्ध वाङ्ग्मय में से अपने पसंद की एक सर्वश्रेष्ठ ग़ज़ल आप पाठकों के हुजूर में पेश करते हुए और उस सम्बन्ध में अत्यंत संक्षेप में कुछ विचार-बिन्दु प्रस्तुत करते हुए ‘हस्तक्षेप’ के दूसरे प्रकरण का पटाक्षेप किया जाए। तो… यह रही ‘दीप’ विरचित मेरी सबसे पसंदीदा ग़ज़ल:-
***
लोग मुझसे पूछते हैं, क्या हुआ है बोलिये
यानि कि लाए नमक हैं, घाव अपने खोलिये
यार! इतने में तो हमको मौत आएगी नहीं
जिन्दगी में और थोड़ा-सा ज़हर तो घोलिये
आओ अब कि नाम लें भगवान का, चोरी करें
हाथ-मुँह सर-पैर सब ने ठीक से हैं धो लिए?
ख़ुदकुशी के वास्ते सल्फ़ास कुछ रक्खे रहें
खेत में अगली फ़सल के बीज तो हैं बो लिए
आपकी ख़ातिर कई दिल तोड़ डाले ‘दीप’ जी
आपकी ज़ानिब चले तो आप उनके हो लिए!
मानवीय भावनाओं के रसातल में जा चुके होने की और मानवमात्र के आपसी रिश्तों के इस कदर गर्त में चले गए होने की तल्ख़ हकीकत को इसकी पूर्ण डरावनी विद्रूपता के साथ बयां करती कोई दो पंक्ति मुझे नहीं याद कि मैंने इससे पहले पढ़ी हो कहीं- इस जोड़ और इस स्तर की, जैसी कि उपरोक्त ग़ज़ल का पहला शेर है। क्या ही हत्प्रभकारी उक्ति-वैचित्र्य! क्या ही नायाब मुहावरीकरण! और एक इस हद तक की घिनौनी सच्चाई को इतनी सहजता और सरलता से- हालाँकि भरपूर रूप से बेलौस और मुंहफट अंदाज़ में ही- अभिव्यक्त कर देना, प्रयोज्य भाषा को खुरदुरा किए बग़ैर ही: यह निश्चित रूप से एक बड़ी उपलब्धि है शाइर के फ़नकारी की।
विनोद कुमार शुक्ल के कालजयी उपन्यास ‘नौकर की कमीज़’ का एक मोटिफ यह है, जैसा कि उपन्यासकार ने अपने मुख्य पात्र से कहलवाया है उस उपन्यास में, कि “सहानुभूति दिखाने का मतलब है आदमी को ऐसी रेंज में लाने की कोशिश करना, जहाँ से उस पर अचूक निशाना साधा जा सके।” और अब आप देखिये कि उस मोटिफ का कितनी सिद्धहस्ती से शेर में तर्जुमा कर दिया है ‘दीप’ ने- यह अर्थ देते हुए कि “किसी के द्वारा आपसे हाल-चाल पूछा जाना ही यह इंगित करता है कि वह आदमी आपके हालचाल को ख़राब देखने की लालसा और खराब करने की नियत से आया है।”
दूसरे शेर ने पहले वाले के भाव को ही थोड़ा-सा और विस्तार दे दिया है, मूल वैचारिकी को थोड़ा-सा और प्रभावोत्पादक बनाते हुए…उसकी तीक्ष्णता को थोड़ा और बढ़ाते हुए…!
फिर गौर कीजिये तीसरे शेर पर: एक बिलकुल ही प्रतीकरूपात्मक (typical) तौर पर हिन्दूस्तान की एकांतिक (singular) मज़हबी तहज़ीब का सटीकतम उदाहरण- क्योंकि यह हिन्दुस्तान के लोगों की, या और भी सटीक शब्दों में कहें तो हिन्दूओं की, मज़हबी तहज़ीब ही है कि चोरी और डकैती के धंधों के भी अपने निश्चित आराध्य देवी-देवता हुआ करते हैं। डकैतों की ‘सांस्कृतिक रिवायत’ (?) का एक अटूट हिस्सा बन चुकी काली-पूजा तो प्रसिद्ध है ही। और ये एक हिन्दुस्तानी-मानस के धर्मभीरु अतार्किकता के दम पर ही सम्भव है कि कितने भी बुरे कृत्य को यदि भगवान् का नाम ले के किया जाय तो पापमोचन की पूरी आशा बरकरार रहती है।
चौथे शेर के बारे में तो अपनी तरफ से कुछ टिप्पणी देने की जगह मैं आपसे एक विनम्र निवेदन करना चाहूंगा, और वो यह कि: भारतीय कृषि जगत में हाल के वर्षों में किसानों की बढ़ती बदहाली से उत्प्रेरित चिंतनीय वाकयों और कृषि-आधारित जनसंख्या की दयनीय सामाजिक-आर्थिक स्थिति पर आपने यदि इससे पहले उपरोक्त ग़ज़ल के चौथे शेर से ज्यादा भीषण रूप से मार्मिक, इससे ज्यादा तीक्ष्ण और मारक कोई शेर पढ़ा है, तो कृपया मुझे बताइयेगा…मैं बड़ी बेसब्री से इन्तज़ार करूंगा उस नायाब चीज़ का! क्योंकि, मैनें तो पिछले पूरे दशक में नहीं पढ़ा है भारतीय-किसान के तकदीर की घनीभूत विडम्बना को बयां करता हुआ इससे ज्यादा मारक, या इससे ज्यादा गहराई का शेर।
और फिर अंतिम शेर: “आपकी खातिर कई दिल तोड़ डाले ‘दीप’ जी!”… आह! …कैसे बयां करें उस अहसास को जब पूरी ज़िंदगी ही ऐसी नज़र आए जैसे कि एक अनादि-अनंतिम दर्द का उच्छवास…! इस दर्द की गहनता, इस करूणा की घनता, इसके अहसासों की गहराई: अफ़सोस कि इसे शब्दों में बयां कर पाना मेरे लिए नितांत असंभव-सा! इसके भावों को सिर्फ महसूस कर सकते हैं, और यदि थोड़े भी साहित्यानुभूतिसम्पन्न या अनूभूतिप्रवण हैं तो…और आप महसूस कर सकते हैं इस भाव की कचोट को अपने अंतस की गहराईओं से निकलकर आपके कंठ-नाल में फंसे आंसूओं के एक वृहत गोले के रुप में दम तोड़ते हुए।
यदि एक शेर एक पूरी कहानी होती है, तो दीपक शर्मा ‘दीप’ की इस गजल का यह अंतिम शेर एक पूरा उपन्यास है। और वो भी साढ़े-तीन सौ पृष्ठों में पसरा एक वृहत उपन्यास। क्योंकि मेरे मुताबिक ये शेर, नोबेल-विजेता स्पानी उपन्यासकार गेब्रियल गार्सिआ मार्खेज की औपन्यासिक कृति “Love in the Time of Cholera” का एक शानदार संघनित रूप है… बस थोड़ा-सा हेर-फेर ये दरकार होता है कि प्रस्तुत शेर में जहाँ पर वेबफ़ाई का ठीकरा नायक के माथे फोड़ा गया है, वहीं पर उपन्यास में वो नायिका के जिम्मे दर्शाया गया है। बहरहाल…कितनी गहरी भावप्रवणता का घनीभूतिकरण है यह अकेला शेर…! साहित्य में उदात्त (sublime) तत्व किसे कहते हैं, यदि इसे नहीं तो!
पटाक्षेप करता हूँ अब…बस इतना कहते हुए कि: साहेबान! हिंदी ग़ज़लगोई की धारा आज यदि सतत बहावमान है, और यदि एक बार फिर से श्री जीवतराम सेतपाल के ही शब्दों में, ये बात सच है कि “सुकुमार जूही की कली की भांति, मोंगरे की मदमाती सुगंध लेकर, गुलाबी अंगड़ाई लेती हुई, पदार्पण करने वाली ग़ज़ल, भारतीय वाङ्मय की काव्य विधा के उपवन में रात की रानी बन बैठी है; और अरबी साहित्य से निस्सृत, फ़ारसी भाषा में समादृत, उर्दू में जवान होकर, अपनी तरुणाई की छटा बिखेरने और हिंदी साहित्य के महासागर में सन्तरण करने आ गई है ग़ज़ल”, तो उसमें ‘दीप’ जैसे “सरल से सरलतम शब्दों में भी गंभीरता-पूर्वक, बड़ी से बड़ी बात को भी नियमों में बाँधकर बड़ी सफलता और सहजता से दोहों की भाँति गहराई से कह देने में समर्थ” और युवा-ऊर्जा व वैचारिक-ताज़गी से भरे-पूरे ग़ज़लकारों की अप्रतिम रचनात्मकता का ही योगदान है!
– राकेश कुमार