ख़ास मुलाक़ात
“काल के अनंत प्रवाह में कभी-कभी ऐसा अद्भुत क्षण आता है जब काल स्वयं मनुष्य को अपना इतिहास बनाने तथा अपनी नियति का नियंता बनने का अवसर प्रदान करता है।”- डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय
मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में हिंदी प्राध्यापक के रूप में कार्यरत प्रसिद्ध साहित्यकार, आलोचक एवं मार्गदर्शक गुरुवर डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय जी के जीवन, व्यक्तित्व तथा साहित्यिक जगत से संबंधित हाल ही में डॉ. प्रमोद पाण्डेय द्वारा की गई बातचीत के कुछ अंश :-
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपका जन्म कब और कहाँ हुआ?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: मेरा जन्म उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में ‘घोरका तालुकादारी’ नामक गाँव में 15 अप्रैल सन् 1968 को हुआ था। मेरा गाँव सई नदी के तट पर स्थित है। प्राकृतिक दृष्टि से बहुत ही रमणीय जगह है।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप अपनी आरंभिक व उच्च शिक्षा के बारे में बताइए ।
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: जहाँ तक आरंभिक शिक्षा का सवाल है तो मैंने आठवीं तक अपने गाँव में ही शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद बारहवीं तक की शिक्षा कालूराम इंटर कॉलेज, शीतलागंज, उत्तर प्रदेश में संपन्न हुई। जून 1986 में 12वीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत मैं मुंबई आ गया और मैंने अंधेरी स्थित एम. वी. एंड एल.यू. कॉलेज में बी.ए. की कक्षा में प्रवेश लिया। सन् 1989 में प्रथम श्रेणी से मैंने बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। उसके बाद मुंबई विश्वविद्यालय के तत्कालीन हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर जी के निर्देश पर मैंने हिंदी विषय में एम.ए. किया। सन् 1991 में एम.ए. प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ। उसके बाद मैंने पीएच.डी. उपाधि हेतु शोध कार्य आरम्भ किया।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपके बचपन की कोई ऐसी घटना जो आपके जीवन में प्रेरणादायी बन गई हो?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय:जहाँ तक बचपन का सवाल है, तो एक बार मैं सई नदी पार कर रहा था, उसी समय हमारे गाँव के दूसरी तरफ बाबा बेलखरनाथ धाम से एक बूढ़ा माली अपने दो पोतों को सई नदी में नहलाने के लिए लाया था। चूँकि बूढ़े माली को देखने में तकलीफ थी और नहाते समय जैसे ही उसके हाथ से दोनों बच्चों की उंगलियाँ छूटीं वे दोनों नदी में बहने लगे। मैंने अपनी साइकिल फेंक करके उन दोनों बच्चों को बचाया और उस माली को बाहर निकलकर ठीक से समझाया। यह मेरे जीवन की एक महत्वपूर्ण घटना है।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपने अध्यापन की शुरुआत कहाँ से की?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: जहाँ तक अध्यापन के आरंभ का सवाल है तो मैंने अगस्त 1991 से फरवरी 1992 तक सिद्धार्थ महाविद्यालय, मुंबई में अध्यापन कार्य किया। 14 फरवरी 1992 को मैं के.सी. महाविद्यालय, चर्चगेट के डिग्री कॉलेज में नियुक्त हुआ। तब से लेकर मैं सितंबर- 2001 तक के.सी. कॉलेज में कार्यरत रहा। उसके बाद मेरी नियुक्ति पुणे विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रीडर पद पर हुई।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: मुंबई विश्वविद्यालय में आप कब आए?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: जब मैं पुणे विश्वविद्यालय में पढ़ा रहा था तो उसी समय मेरी नियुक्ति मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में रीडर के पद पर हुई और मैंने दिसंबर- 2003 में मुंबई विश्वविद्यालय में रीडर पद का कार्यभार संभाला।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: मुंबई विश्वविद्यालय का आपका आरंभिक अनुभव कैसा रहा?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: मैं मुंबई विश्वविद्यालय में अपनी पी-एच.डी. पूर्ण होने के उपरांत सन् 1997 से ही अतिथि प्राध्यापक के रूप में एम.ए. की कक्षाएं ले रहा था। मैंने अपनी पी-एच.डी. डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर जी के मार्गदर्शन में संपन्न की थी। अतः मैं कह सकता हूँ कि मैं 1989 से ही मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से जुड़ा रहा और वहाँ की तमाम गतिविधियों से परिचित था। इसलिए जब मैंने मुंबई विश्वविद्यालय में अपना कार्यभार संभाला तो मुझे किसी प्रकार की कोई तकलीफ नहीं हुई।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपकी साहित्यिक यात्रा की शुरुआत कब और कैसे हुई?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: जहाँ तक मेरी साहित्यिक यात्रा का सवाल है तो मैंने 11वीं और 12वीं के अध्ययन के दौरान ही मीराबाई नामक एक काव्य नाटक लिखा जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुआ है। उसके बाद मुंबई आकर मैंने कहानी, कविता और निबंध लेखन के क्षेत्र में अपनी रुचि का परिचय दिया। लेकिन एम.ए. करने के दौरान ही मैं आलोचना के क्षेत्र में आ गया और मूल रूप से आलोचक ही बन गया।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप अपनी साहित्यिक यात्रा के लिए किसे प्रेरणा स्रोत मानते हैं?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: जहाँ तक साहित्यिक यात्रा के प्रेरणा स्रोत का सवाल है तो मैं अपनी साहित्यिक यात्रा के प्रेरणा स्रोत के रूप में डॉ. चंद्रकांत बांदिवडेकर, डॉ. रोशन डुमासिया और अपने बड़े भाई साहब को श्रेय देता हूँ क्योंकि इन लोगों ने मुझे साहित्य के क्षेत्र में सक्रिय होने के लिए प्रेरित किया।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप एक प्रसिद्ध साहित्यकार एवं आलोचक के रूप में प्रसिद्ध हैं, इतनी लंबी यात्रा आपने कैसे तय की?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: इस संदर्भ में कहना चाहूंगा कि मैंने एम.ए. के दौरान आलोचनात्मक लेख लिखने आरंभ किए थे। जब मैं पी-एच.डी. कर रहा था, उस समय 1995 में मेरी दो आलोचना की पुस्तकें, “सर्जना की परख,” “साहित्यकार बेकल: संवेदना और शिल्प” प्रकाशित हुई। इसके बाद सन् 1999 में मेरा पी-एच.डी. का शोध प्रबंध “आधुनिक हिंदी कविता में काव्य चिंतन” शीर्षक से प्रकाशित हुआ। उसके बाद 2001 में “पाश्चात्य काव्य चिंतन के विविध आंदोलन” विषय पर विश्व विद्यालय अनुदान आयोग की अध्येतावृत्ति पर मेरा पोस्ट डॉक्टर रिसर्च संपन्न हुआ। सन्- 2002 में मेरी पुस्तक “मध्यकालीन काव्य चिंतन और संवेदना” तथा 2003 में “पाश्चात्य काव्य चिंतन” नामक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ प्रकाशित हुआ। इसी क्रम में पत्र-पत्रिकाओं में लगातार लेखन होता रहा। सन् 2007-08 में 5 पुस्तकें प्रकाशित हुई। इन पुस्तकों में “हिंदी कथा साहित्य का पुनर्पाठ,” “विविधा,” “आधुनिक कविता का पुनर्पाठ,” “हिंदी का विश्व संदर्भ” इत्यादि का समावेश है। इसके बाद कई पुस्तकें प्रकाशित हुई, जिनमें आवां विमर्श, वक्रतुंड मिथक की समकालीनता, ब्लैक होल विमर्श, सृजन के अनछुए संदर्भ, हिंदी साहित्य मूल्यांकन और मूल्यांकन, साहित्य और संस्कृति के सरोकार, जैसे ग्रंथों का उल्लेख किया जा सकता है। इस दौरान पाश्चात्य काव्य चिंतन तथा हिंदी का विश्व संदर्भ के 3 संस्करण प्रकाशित हुए हैं और पाश्चात्य काव्य चिंतन का छात्र संस्करण भी दो बार प्रकाशित हुआ है।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक यात्रा के विषय में कृपया बताएं?डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: इस संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि मैं मारीशस, संयुक्त राज्य अमेरिका, संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों की यात्रा कर चुका हूँ और मैंने इन देशों की तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक संदर्भ और हिंदी भाषा की अद्यतन स्थिति का विवरण अपनी पुस्तक हिंदी का विश्व संदर्भ में दिया है।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपकी अब तक की प्रकाशित पुस्तकों के बारे में बतइए?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: जहाँ तक मेरी प्रकाशित पुस्तकों का सवाल है तो अब तक मेरी 16 मौलिक आलोचनात्मक पुस्तकें और 12 संपादित आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इसके अलावा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में 300 से अधिक शोध लेख भी प्रकाशित हो चुके हैं।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपकी पुस्तक ‘हिंदी का विश्व संदर्भ’ काफी चर्चा में रही है। कृपया इस पुस्तक के संदर्भ में हमें बताएं?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय:इस संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि हिंदी का विश्व संदर्भ निश्चित रूप से अत्यंत चर्चित पुस्तक रही है। यहाँ तक कि 10 जनवरी- 2017 को विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी के सबसे बड़े अखबार, जो विश्व का भी सबसे बड़ा अखबार है “दैनिक जागरण” में यह पुस्तक मुख्य ख़बर (हेडलाइन) के रूप में प्रकाशित हुई है। अपने 40 से ज्यादा संस्करणों में इस पुस्तक को मुख्य खबर के रूप में प्रकाशित करके “दैनिक जागरण” ने सराहनीय कार्य किया । इस पुस्तक की विशेषता यह है कि इसमें न केवल विश्व भर में हिंदी बोलने वालों की अद्यतन जानकारी दी गई है अपितु विश्व के जिन-जिन देशों में हिंदी पठन-पाठन की व्यवस्था है तथा जिन विश्वविद्यालयों और शिक्षण संस्थाओं में हिंदी का प्रशिक्षण दिया जा रहा है उसकी भी जानकारी दी गई है। इसके अलावा विदेशों में जो रचनाकार हिंदी में रचना कर रहे हैं और जो पत्र-पत्रिकाएं हिंदी में प्रकाशित हो रही हैं, उन तमाम चीजों की जानकारी एकत्र मिल जाती है। इस कारण यह पुस्तक बहुचर्चित रही है।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप रक्षा विशेषज्ञ के रूप में कई हिंदी समाचार चैनलों पर अपना मंतव्य व्यक्त कर चुके हैं, कृपया इस संदर्भ में हमें विस्तारपूर्वक बताएं?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: इस संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि मैंने बी.ए. और एम.ए. की कक्षाओं के दौरान अंतरराष्ट्रीय विषय पर पर्याप्त अध्ययन किया था और मैं आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा था। इस कारण मुझे अंतरराष्ट्रीय मामलों और रक्षा से संबंधित तमाम प्रश्नों की गहन जानकारी है। हिंदी के कई समाचार चैनल, जैसे- ज़ी न्यूज़, न्यूज़२४, सहारा समय, जियो न्यूज समेत अनेक चैनलों ने रक्षा विशेषज्ञ और अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार के रूप में कई बार मेरा साक्षात्कार लिया है। अनेक प्रश्नों पर उन्होंने एक विशेषज्ञ के रूप में मेरी टिप्पणी भी ली है। यह मेरी रुचि और शौक का क्षेत्र है, जिसे मैं साहित्य के अलावा लगातार विकसित और अद्यतन करता रहता हूँ।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप मुंबई विश्वविद्यालय में हिंदी प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं, आपका अब तक का अनुभव कैसा रहा?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: इस संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि हिंदी प्राध्यापक के रूप में मेरा स्वयं का अनुभव बहुत अच्छा है। मैंने पूरी निष्ठा से अपना कार्य संपन्न किया है। अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए अपनी जवाबदेही को बड़ी ही ईमानदारी के साथ निष्ठापूर्वक निभाया है। इस कारण तमाम छात्र-छात्राएं, सहयोगी और हिंदी के विद्वान मुझे अपना स्नेह और सम्मान देते हैं।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपके मार्गदर्शन में अभी तक कितनी पी-एच.डी. व एम.फिल. हुई है?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: अब तक मेरे मार्गदर्शन में 25 पी-एच.डी. और 50 छात्र एम.फिल. की उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। यह अपने आप में एक विशिष्ट उपलब्धि है।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप मुंबई विश्वविद्यालय के हिंदी विभागाध्यक्ष पद पर भी रह चुके हैं, आपका अनुभव कैसा रहा?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: मैंने हिंदी विभागाध्यक्ष के पद पर रहते हुए दो बड़े कार्य किए हैं। पहला कार्य यह कि हमारे विभाग में वर्षों से कई पद रिक्त थे, तो मैंने पाँच अध्यापकों की नियुक्ति करवाई। दूसरा बड़ा कार्य यह कि मैंने महाराष्ट्र शासन के जिलाधिकारी से मुंबई विश्वविद्यालय के कालीना परिसर में हिंदी भाषा भवन निर्माण हेतु 5 करोड़ रुपए की राशि स्वीकृत कराई। इन दोनों चीजों को मैं अपनी उपलब्धि मानता हूँ। इसके अलावा मेरे कार्यकाल के दौरान 27 संगोष्ठियां हुई। जिनमें एक अंतरराष्ट्रीय और 10 राष्ट्रीय संगोष्ठियां शामिल हैं। मैंने अपने कार्यकाल के दौरान हिंदी शिक्षण और शिक्षा के स्तर को यथासंभव ऊपर उठाने का प्रयत्न किया और उस दौरान जो भी साहित्यिक अनुष्ठान संपन्न हुए हैं वे सब इस बात के गवाह हैं कि साहित्यिक स्तर कितना ऊपर रहा है।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपको अभी तक प्राप्त पुरस्कार एवं सम्मान के संदर्भ में बताएं।
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: अभी तक मुझे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर 12 पुरस्कार मिले हैं। इसके अतिरिक्त राज्य स्तर पर और स्थानीय स्तर पर जो पुरस्कार और सम्मान मिले हैं, उनकी संख्या दर्जनों में है। मुझे मुंबई विश्वविद्यालय का सर्वोत्तम शिक्षक का भी पुरस्कार मिला है ।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आप मेरे लिए प्रेरणा स्रोत हैं।अतः आप आने वाले विद्यार्थियों के लिए प्रोत्साहन स्वरूप क्या कहना चाहेंगे?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: आपने स्वयं यह स्वीकार किया है कि मैं आपके लिए प्रेरणास्रोत हूँ। मैं दूसरे या आने वाले छात्रों के लिए भी यही कहना चाहूंगा कि जीवन में कठिन परिश्रम का कोई विकल्प नहीं है। हम अपने अध्ययन-अध्यापन, लेखन और परिश्रम के द्वारा उपलब्धियों के तमाम बड़े शिखर पार कर सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि हम अपने व्यक्तित्व को संघटित रखें और अपने समय और ऊर्जा का सही दिशा में सार्थक उपयोग करें।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने हेतु आपने काफी प्रयास किया। इस संदर्भ में आप क्या कहना चाहते हैं?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: हम न केवल हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए प्रयास कर रहे हैं अपितु हम लगातार भारत सरकार से यह आग्रह कर रहे हैं कि हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाई जाए। वह इसलिए क्योंकि आज पूरे विश्व में हिंदी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। जिसके प्रयोक्ताओं की संख्या एक अरब तीस करोड़ है। विश्व में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा होने के बावजूद भी यदि हिंदी संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा नहीं बन पाई है तो यह विश्व के हर छठे व्यक्ति के मानवाधिकार का उल्लंघन है। अतः मैं भारत सरकार से यह आग्रह करता हूँ कि वह न केवल हिंदी को संयुक्त राष्ट्र संघ की आधिकारिक भाषा बनाने का प्रयास करे अपितु आज ऐसे कई स्वार्थी तत्व जो हिंदी को तोड़ने में लगे हैं उनसे हिंदी की रक्षा भी करे। आज कतिपय तत्त्व हिंदी की बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करवा कर हिंदी के संयुक्त परिवार को तहस-नहस करना चाहते हैं। ऐसा करने से न केवल हिंदी बिखर जाएगी अपितु जो हिंदी, राष्ट्रीय एकता और अखंडता को बनाए रखने तथा राष्ट्रीय और वैश्विक स्तर पर संवाद कायम करने का सबसे सशक्त माध्यम है वह भी खतरे में पड़ जाएगा अतः आज हिंद और हिंदी दोने के अखंडता की रक्षा करना हमारा सबसे बड़ा दायित्व है।
डॉ. प्रमोद पाण्डेय: आपका विद्यार्थियों के प्रति हमेशा आत्मीय व्यवहार रहा है। अतः विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य के लिए क्या कहना चाहेंगे?
डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय: मैं सदैव अपने सभी विद्यार्थियों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता आया हूँ और पुनः सभी विद्यार्थियों के प्रति इस साक्षात्कार के माध्यम से अपनी शुभकामनाएं प्रेषित करता हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे पढ़ाए हुए छात्र जीवन और कैरियर के तमाम क्षेत्रों में सफलता प्राप्त करते हुए यश की प्राप्ति करें ताकि उनकी उपलब्धियों से हमारा भी नाम चतुर्दिक ख्याति प्राप्त करे। इन्हीं शुभकामनाओं के साथ।
कहना न होगा कि बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय साहित्यिक क्षेत्र के विविध सोपानों को पार करते हुए उच्च शिखर पर पहुँचे हैं। विद्यार्थियों के प्रति उनका आत्मीय व्यवहार रहा है। पठन-पाठन में रुचि रखने वाले तथा हँसमुख एवं चिंतनशील स्वभाव वाले डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय हिंदी साहित्य को नई दिशा प्रदान करने के साथ-साथ हिंदी भाषा को नया आयाम दिलाने के लिए प्रयत्नशील हैं। इतनी प्रतिष्ठा एवं ख्याति के बावजूद भी इनके मन में किसी प्रकार की ईर्ष्या, द्वेष व अहंकार नहीं है। ‘सादा जीवन, उच्च विचार’ रखने वाले डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय ने हमेशा विद्यार्थियों के प्रति आत्मीय एवं मित्रवत व्यवहार रखते हुए उन्हें उचित मार्गदर्शन प्रदान किया है। इस साक्षात्कार से निश्चित ही भावी साहित्यिक पीढ़ी एवं विद्यार्थी न सिर्फ लाभान्वित होंगे अपितु उनकी विद्वत्ता का भी अनुसरण करेंगे। ऐसे ख्यातिप्राप्त आलोचक, साहित्यकार, विद्वान तथा मुंबई विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष एवं वर्तमान हिंदी प्राध्यापक गुरुवर डॉ. करुणाशंकर उपाध्याय की महानता व उनकी विद्वत्ता के प्रति मैं नतमस्तक हूँ।
– डॉ. प्रमोद पाण्डेय