मूल्यांकन
क़तरा भर धूप: अनुभूति गुप्ता की अनुभूतियों के अछूते विन्यास- ज्ञानचंद मर्मज्ञ
कविता अंतः प्रज्ञा से उपजी भावनाओं की प्रतिध्वनि होती है, जिसकी तरंगे कवि की छटपटाहट को शब्दों में ढालती हैं। पृथ्वी पर जब भी सत्य का अवतरण हुआ है, कविता के रूप में हुआ है। कभी वेदों की ऋचाओं में तो कभी भगवत गीता के श्लोकों में। कविता हर युग में सत्य को जीती है और सत्य को ही स्थापित करती है। सदियों से मानव चेतना का प्रमुख केंद्र सत्य ही रहा है इसीलिए कविता के स्पर्श का अनुभव हम बहुत ही आसानी से कर पाते हैं। कालान्तर में कविता को नए रूप में स्थापित करने के कई प्रयास हुए और हर परिवर्तन के साथ इसका नया नामकरण भी किया गया परंतु इसकी आत्मा कभी नहीं बदली। कविता हर रूप में मानवीय संवेदना की सच्चाई बनकर मुखरित होती रही है।
अपने हिस्से की ‘क़तरा भर धूप” पाने की चाह रखना हर मनुष्य का मौलिक अधिकार है, जिसके लिए वह जीवन भर संघर्ष करता है। इसी धूप में जीवन के वो सारे रंग भी घुले होते हैं, जो उसके सपनों को प्राणवान करते हैं। अनुभूति गुप्ता का कविता-संग्रह ‘क़तरा भर धूप’ विद्रूपताओं के घनघोर अँधेरे में उजाले की ज़िद है, जिसका फ़लक बहुत ही विस्तृत है। पीड़ा, त्रासदी, करुणा, आक्रोश, संवेदना, आशा और संघर्ष के भाव उनकी कविताओं को जीवंत बनाते हैं। उनके अनुभव का विस्तार और नए प्रतिमान कविता के नए तेवर को जन्म देते हैं। अनुभूति गुप्ता जी की सोच के आकाश में उमड़ते बादल मानवीय संवेदनाओं से लबालब भरे हैं, जो कभी समय की आँखों से आँसू बनकर छलक पड़ते हैं तो कभी पाठकों के समक्ष प्रश्न बनकर खड़े हो जाते हैं। जीवन के उतार-चढ़ाव की अंतिम सच्चाई अनुभूति गुप्ता की कविताओं का प्रतिनिधित्व करती है।
आज हम अपनी परम्पराओं और संस्कृति के विस्थापन के जिस दौर से गुज़र रहे हैं, वहाँ संबंधों की मर्यादा तार-तार हो चुकी है। ऐसे में बूढी दादी का दर्द रिश्तों के तमाम अनुबंधों को कटघरे में लाकर खड़ा कर देता है और खुशियों की पौध रोपने वाले माँ-बाप के लिए खिड़की से उदास सूरज को निहारने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। संबंधों के टूटते हुए विश्वास की असीम पीड़ा ‘संयुक्त परिवार’ और ‘हँसमुख दम्पति’ कविता में बहुत ही भावपूर्ण ढंग से उभर कर आयी है।
कवयित्री अनुभूति गुप्ता जीवन के सार्थक सन्दर्भों की पड़ताल बड़ी सूक्ष्मता से करती हैं। उनकी पैनी दृष्टि उन पुराने रोशनदानों को आज भी बेसब्री से ढूंढती है, जिसकी जगह नयी खिड़कियों ने ले ली है। वह खिड़कियों के उस पार भी देखने का साहस रखती हैं, जहाँ हमारी सांस्कृतिक विरासत बड़ी तेजी से दम तोड़ रही है और हम आधुनिकता के नाम पर पश्चिमी सभ्यता के नंगेपन को ओढ़ते जा रहे हैं। फिर भी वह निराश नहीं हैं, उनकी प्रबल जिजीविषा तनिक भी विचलित नहीं है। उन्हें विश्वास है कि जब ख़यालों की मुंडेरों पर नए गीत लिखे जायेंगे तो निश्चय ही नये सूरज का उदय होगा, जिसकी किरणें दु:खों के अँधेरों को चीर कर उजालों का विजयगान गाएंगी। ‘रोशनदान और खिड़कियाँ’ कविता जहाँ आधुनिकता के नाम पर बलि चढ़ती हुई मान्यताओं की मृत्यु की घोषणा है, वहीं ‘ख़यालों के मुडेरों पर’ कविता आत्मविश्वास के पुनर्जन्म का उद्घोष है।
कहते हैं, संसार को पूर्ण करने के लिए ईश्वर ने नारी का सृजन किया परंतु पुरुष प्रधान समाज ने अपना वर्चस्व क़ायम रखने के लिए नारी को हमेशा प्रताड़ित किया। प्रस्तुत संकलन में नारी की व्यथा को रेखांकित करती हुई कई मार्मिक कविताएँ हैं, जो सीधे-सीधे हृदय में उतर जाती हैं और मन को उद्वेलित करती हैं। ‘स्त्री का देह होना कठिन है’ कविता में अनुभूति जी ने उम्र के हर मोड़ पर एक नई देह में ढलती हुई स्त्री के भोगे हुए सत्य को निरूपित किया है। समाज भी तो बस स्त्री की देह को ही देखता है। कितने लोग हैं, जो उसकी आत्मा को देखने का प्रयास करते हैं? यह आज की बात नहीं है, सदियों से यही होता आया है। लोग उसकी देह को ही ख़रीदते और बेचते रहे हैं, कभी सभ्यता का मुखौटा लगाकर तो कभी राक्षसी घिनौनापन दिखाकर। सचमुच एक देह बनकर जीना बहुत कठिन है। इस संग्रह में भी: स्त्री की आकांक्षाएं, कल्पनाओं में स्त्री, स्त्री और पुरुष, एक बूढ़ी दादी, एक बच्ची का प्रश्न, जब-जब अकेली होती है स्त्री, बिन माँ की बच्ची जैसी कई ऐसी रचनाएँ हैं, जिसमें नारी की बेबसी की पीड़ा रात के सुनसान सन्नाटे में सिसकती हुई चांदनी के हाथों तराशे गए गुलमोहर के पत्तों पर ठहरी हुई पानी की बूंदों की तरह सुलगती हुई प्रतीत होती है।
सद्य प्रकाशित ‘क़तरा भर धूप’ में मानव द्वारा किये जा रहे मौन प्रकृति के दोहन की संवेदना है तो सामाजिक विसंगतियों को देखकर पथराई हुई आँखों से बहते हुए कई आँसू भी हैं। बालुई घनत्व के चिरकते हुए रिश्तों की टीस के साथ झूठ, आडम्बर, बनावटीपन और स्वार्थ के विरुद्ध युद्ध की घोषणा है तो ममता, प्रेम, सद्भाव, मानवता और पारिवारिकता के प्रति समर्पण का जयघोष भी है। प्रस्तुत संकलन की अनेक कविताएँ अभिव्यक्ति के विलक्षण प्रयोग से सुवासित हैं, जैसे-
कविताओं का मौन होना, अनुभूतियों का मंथन होना है
पाती हूँ तुम्हें शब्दों की देह पर गिरती उठती मात्राओं में
ले आते हैं खींचकर पुरानी पड़ी हिचकियाँ, नम सिसकियाँ, पुराने पड़ें मकानों से
कुल मिलाकर ‘क़तरा भर धूप’ की कविताएँ अनुभूति गुप्ता के सहज मन की सजग अनुगूँज हैं, जो गंगा की तरह निर्मल और अक्षत की तरह पवित्र भावों से अभिसिंचित हैं। मुझे विश्वास है कि साहित्य जगत में इसका भरपूर स्वागत होगा। संग्रह हेतु बधाई के साथ-साथ उनके सहज साहित्यिक समर्पण हेतु मेरा कोटीशः साधुवाद।
– ज्ञानचंद मर्मज्ञ